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[ सत्ताईस ]
जी श्री दीपचन्द्रमी अस्वस्थ हो गए । श्रीमद् के प्रति आपका महान् उपकार था । श्रीमद् का भी आपके प्रति अपूर्व प्रेम था । श्रीमद् ने गुरूदेव की तन-मन से खूब सेवा की । किन्तु, “परिवर्तिनी संसारे, मृतः को वा न जायते ।”
जहाँ जन्म है, वहाँ मृत्यु है । जन्म और मृत्यु का यह अविनाभावी सम्बन्ध मोक्ष fafa होता है । यद्यपि श्रीमद् ने गुरूदेव की सेवा में कोई कसर नहीं रखी किन्तु मृत्यु ! अप्रतिक्रिय तत्त्व है । उसके आगे किसी का वश नहीं तथा सन्त पुरूष का तो जीना और मरना दोनों समान ही हैं, क्योंकि वे मरकर भी अपनी गुरण देह से सदा अमर रहते हैं । उपाध्यायजी भी संयम की समाराधना करते हुए संवत् १७८८ की प्राषाढ़ सुदी २ के दिन समाधिपूर्वक स्वर्गवासी हो गए ।
आपकी अपने गुरूजनों के प्रति अगाध श्रद्धा एवं अनन्य भक्ति थीं । गुरू चरणों में आपका समर्पण अद्भुत था । अपनी समस्त रचनाओं में महोपाध्याय राजसागरजी एवं उपाध्याय दीपचन्द्रजी का नाम अंकित कर उनके नाम को भी अमर कर दिया । इस तरह अपने गुरू के ऋण को यथा शक्ति चुकाने का जो विनम्र प्रयत्न श्राप श्री ने किया वह श्लाघनीय एवं अनुकरणीय है ।
भण्डारी जो को प्रतिबोध
अहमदाबाद के तत्कालीन सूबेदार जोधपुर निवासी श्री रत्नसिंहजी भण्डारी थे । भण्डारीजी के घनिष्ठ मित्र श्री प्राणंदरामजी श्रीमद् के पास आया-जाया करते थे एवं उनकी ज्ञानगरिमा से अत्यधिक प्रभावित थे । आणंदरामजी ने भण्डारजी के समक्ष श्रीमद् के गुणों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। उनके गुरणों से प्राकर्षित हो भण्डारीजी भी गुरूदेव के सत्संग का लाभ उठाने लगे । सन्तों की वाणी में सदाचार का प्रोज होता हैं । सत्य का जादू होता है, जिससे प्रेरित हो व्यक्ति आत्म-समुन्नति के पथ पर अग्रसर हो जाता है । सन्तों के सत्संग का बड़ा भारी महत्व है । तुलसीदास जी के शब्दों में-
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