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[ अड़तीस ] १-संयम लेने के बाद लघुवय में हो अापके उच्च प्राध्यात्मिक जीवन का प्रारम्भ हो गया था। एक दिन का प्रसंग है कि श्रीमद् कायोत्सर्ग-ध्यान में लीन थे और एक साँप आपके शरीर पर चढ़ने लगा। साथी मुनिराज घबराने लगे किन्तु आप जरा भी विचलित नहीं हुए। जब काउस्सग्ग पूर्ण हुआ, सर्प शरीर पर से उतरकर सामने बैठ गया। आपने उसे बड़े मधुर शब्दों में 'समभाव' का उपदेश दिया । साँप ने भी अपने फणों को इस प्रकार हिलाया कि मानो समतारस के पान से झूम उठा हो। यह घटना श्रीमद् की सच्ची निर्भयदशा की सूचक है।
२-पाप पंजाब में विचरण कर रहे थे। एक दिन की बात है कि आपको पर्वत के निकटवर्ती रास्ते से गुजरना था। किन्तु उस रास्ते पर सिंह का बड़ा आतंक था, अतः लोगों ने प्रापको उधर जाने से रोका। किन्तु आप कब रुकने वाले थे। आप तो सर्व मैत्री की मंगलभावना को लेकर निर्भयतापूर्वक आगे बढ़ते ही गये। जैसे ही आप सिंह के नजदीक पहुँचे कि वह गुर्रा कर उठा किन्तु श्रीमद् की नजर से नजर मिलते ही एकदम शान्त हो गया। लोगों के समझ में आ गया कि 'अहिं सायां प्रतिष्ठायों तत्सन्निछौ वैरत्यागः यह सत्य है।
३-संवत् १७८८ में राजनगर (अहमदाबाद) में, महामारी का भयंकर उपद्रव हुमा था। प्रतिदिन सैंकड़ों लोग मर रहे थे। सूबेदार रत्नसिंहजी भण्डारी एवं महाजनों से नहीं रहा गया उन्होंने उसे शान्त करने की आपसे वीनती की। आपने भी लाभ जानकर अपनी आत्मिक शक्ति से उस उपद्रव को शान्त किया।
४-संवत् १७६३ में मराठा सरदार दामजी के सेनापति रणकूजी ने विशालसैन्य के साथ अचानक गुजरात पर आक्रमण कर दिया। इससे भण्डारीजी को बड़ी चिन्ता हुई। उन्होंने अपनी चिन्ता श्रीमद् के सामने व्यक्त की। श्रीमद् ने मन्त्रपूत वासक्षेप पूर्वक भण्डारी जी को शुभाशीर्वाद दिया । फलतः अल्पसैन्य होते हुए भी भंडारीजी युद्ध में विजयी बने ।
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