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[ छत्तीस ]
आया हुआ था, घर घर में विद्वेष पूण एव कटुता युक्त वातावरण छाया हुआ था तथापि इतना सब कुछ होते हुए भी श्रीमद् ने अपने रचित ग्रथों में एक भी शब्द किसी भी गच्छ के विरूद्ध नहीं लिखा और नहीं कुछ बोले जबकि स्वयं तपगच्छ के ही यशोविजयजी उपाध्याय ने धर्म सागराश्रित प्रागम विरूद्ध अष्टोत्तर शत बोल संग्रह, धर्म परीक्षा व उसकी टीका तथा प्रतिमा शतक में धर्म सागरजी की मान्यताओं का खुलकर खंडन किया है।
__जहाँ धर्मसागरजी अन्यगच्छों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमाओं को अपूज्य ठहराते थे, वहां ये आत्मज्ञानी महापुरुष अन्यगच्छों के प्राचार्यों एवं मुनिवरों की स्तवना करते हुए उनकी रचनात्रों का अनुवाद करते हैं। उपाध्याय यशाविजयजी कृत 'ज्ञानसार ग्रन्थ' पर आपकी 'ज्ञानमंजरी' टीका एवं देवेन्द्रसूरिकृत कर्मग्रन्थों पर आपका टब्बा इसका ज्वलन्त उदाहरण है ।
गच्छवाद तो दूर रहा, किन्तु वे श्वेताम्बर-दिगम्बर के भेदभाव से भी दूर थे। जैसे उन्होंने हरिभद्रसूरिजी एवं यशाविजयजी आदि श्वेताम्बर प्राचार्यों के ग्रन्थों का अध्ययन किया, वैसे गोम्मटसारादि दिगम्बरीय ग्रन्थों का भी आदरपूर्वक अध्ययन किया।
इतना ही नहीं आपने दिगम्बरीय शुभचन्द्रजीकृत ज्ञानार्णव के आधार पर 'ध्यानदीपिकाचतुष्पदी' ग्रन्थ की महत्वपूर्ण रचना की। इस ग्रन्थ में आपने कई दिगम्बराचार्यों की भाव-पूर्वक स्तुतियां की हैं। वस्तुत: इसो उदारदृष्टि के कारण आप सभी गच्छवालों के पूज्य हैं ।
इन सब बातों से सिद्ध होता है कि श्रीमद् उच्चकोटि के प्राध्यात्मिक महापुरुष थे। 'खरतरगच्छजिनाणारंगी' इत्यादि शब्दों से अपने गच्छ की समाचारी को प्रागमानुसारी कहते हुए भी आपने दूसरों की कभी निन्दा नहीं की।
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