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[ चौतीस ]
जिन्होंने धर्मसागरजी द्वारा फैलाये हुए विद्वेष के वातावरण में भी निर्भय होकर
आपके पास अध्ययन किया। इतना ही नहीं उस प्रसंग को अविस्मरणीय बनाने के लिये बड़े आदरपूर्वक अपनी कृतियों में उसका उल्लेखकर एक महान् आदर्श प्रस्तुत किया ।
आपका ज्ञानदान साधूनों तक ही सीमित नहीं था। वे आत्मार्थी गहस्थों को भी ज्ञानदान देने में सदा तत्पर रहते थे। अहमदाबाद में पूजाशा नामक एक सद्गृहस्थ थे। श्रीमद् उन्हें बड़े प्रेमपूर्वक शास्त्राभ्यास करवाते थे। बाद में इन्हीं पूजाशा ने जिनविजयजी के पास दीक्षा ग्रहण की थी। धन्य हैं, उन निस्पृह शिरोमरिण सन्त को जिन्होंने प्रेम से विद्यादान तो दिया किन्तु कभी भी किसी को अपना शिष्य बनने की प्रेरणा नहीं दी। यह कोई सामान्यबात नहीं है। शिष्य परिवार बढ़ाने के लिये क्या नहीं किया जाता है। किन्तु सच्चे प्रात्मार्थी तो पुत्र-पुत्री की तरह उनका भी मोह त्यागते हैं। सच्चा माग अवश्य दिखा देते हैं । श्रीमद् की निस्पृहता प्राज के लिये महान् प्रादर्शरूप हैं।
इसके अलावा लींबड़ी निवासी शाह डोसा बोहरा, शाह धारसी जयचन्दजी को भी आपने अध्ययन करवाया था। इतना ही नहीं ज्ञानाभिलाषियों की सुविधा के लिये तत्वज्ञान की गूढ़बातों को बड़ी सरल भाषा और शैली में रचकर सर्वयोग्य बनाने का प्रयत्न किया था। प्रागमसार, विचाररत्नसार. ध्यानदीपिका चतुष्पदी, अष्टप्रवचनमाता, पंचभावना ग्रादि की सज्झाये इसी का उदाहरण है।
उदार एवं समभावो श्रीमद
जैन धर्म के अनेकान्त सिद्धान्त के अनुसार आपकी दृष्टि बहुमुखी एवं विशाल थी। सकीर्णता एवं हठाग्रह से आप सदा दूर ही रहे । आप बड़े उदारचेता
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