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[छियालीस ]
अल्पमत्तिना वित्त में, नावे ते विस्तार । मुख्य स्थूल नयभेदनो, भाष्यो अल्प विचार ।।"
श्रीमद् के ग्रन्थों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका ध्येय 'पांडित्य प्रदर्शन' का कभी नहीं रहा, किन्तु साधारण व्यक्ति भी तत्वज्ञानद्वारा अपना आत्म कल्याण कर सके यही एक तमन्ना रही। अतः मल्लवादी कृत 'द्वादशसारनयचक्र' में विस्तारपूर्वक सात सौ नयों का वर्णन होते हुए भी श्रीमद् ने अपने 'नयचक्र' में अल्प बुद्धि वाले भी सरलता से समझ सके इसके लिये नय के मुख्य मुख्य भेदों पर ही विचार किया है। इसके अलावा इस ग्रन्थ में गुणस्थानगत जीवों के भेद, द्रव्यगुण पर्यायलक्षण, पंचास्तिकाय का स्वरूप, सप्तभंगी, सामान्य-विशेष स्वभाव के लक्षण. आदि विषयों का भी अच्छा वर्णन है।
३. विचारसार-टीका:--
'विचारसार' मूल ग्रंथ प्राकृत गाथा बद्ध है। इस ग्रन्थ के दो भाग हैं(१) गुणस्थानाधिकार और (२) मार्गणाधिकार । (१) गुणस्थानाधिकार--यह एक सौ सात श्लोक में पूर्ण होता है। इस अधिकार में गुणस्थानों के सम्बंध में छियानवे (९६) द्वारों को अवतारणा करते हए, बंधस्थान, उदयस्थान, उदीरणास्थान, मूलबंध, उत्तर-बंध, योग, उपयोग, लेश्या, भाव, समुद्घात ध्यान, जीवयोनि, कुलकोटि, पाश्रव, संवर, निर्जरा आदि का सचोट शास्त्रीय एवं विशद वर्णन किया है।
मार्गणाधिकार-यह दौ सौ तेरह श्लोकों में पूर्ण है। इस अधिकार में बासठ मार्गणास्थानों का वर्णन करते हुए उनमें बंध उदय उदीरणा प्रादि द्वारों की
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