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[ बाईस ] यद्यपि बर्धमान सूरि स्वयं किसी समय चैत्यवासियों के प्रमुख प्राचार्य थे, किन्तु जैन शास्त्रों का विशेष अध्ययन करने पर उन्हें अपना तत्कालीन आचार-विचार मिथ्या और अनुचित लगने लगा । फलतः उन्होंने इस अवस्था का त्यागकर विशिष्ट त्यागमय जीवन अपना लिया। उनके शिष्य जिनेश्वरसूरि आदि ने भी उसी मार्ग का अनुसरण किया । वे क्रियापत्र ही नहीं उच्चकोटि के आगमज्ञ भी थे। उन्होंने चैत्य वास के विरुद्ध संप्रदाय व्यापी और देश व्यापी आंदोलन छेड़ने का कार्य अपने हाथ में लिया। इसके लिये उन्होंने सुविहित मार्ग प्रचारक नया गण स्थापित किया । इसके उन्मूलन के लिये यथाशक्य सभी उपाय किए शास्त्रार्थ भी किया। आपने पाटण में दुर्लभ राज की सभा में चैत्यवास के प्रबल समर्थक सुराचार्य के साथ शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त की। इसी विजय के फलस्वरूप दुर्लभराज ने उन्हें 'खरतर-विरुद्ध' दिया। इस तरह खरतर गच्छ का प्रादुर्भाव अपने में एक महासाहसिक कदम था। इस प्रसंग से जिनेश्वरसूरि की पाटण में ही नहीं किन्तु मारवाड़ मेवाड़, गुजरात, सिंध, मालवा प्रादि प्रदेशों में भी खूब ख्याति बढ़ी। आपकी निश्रा में चतुर्विध संघ का अच्छा संगठन तैयार हुआ था। इनके प्रभाव के कारण अनेक समर्थ यतिजन चैत्याधिकार का और शिथिलाचार का त्यागकर क्रियोद्धार करके अच्छे संयमी बने । मन्दिरों की व्यवस्था और देवपूजा की पद्धतियों में शास्त्रानुकूल सर्वत्र परिवर्तन हुए।
यद्यपि जिनेश्वरसूरि ने इस परंपरा को मिटाने का प्राजीवन पुरुषार्थ किया. तथापि इतने थोड़े समय में उसके मूल को उखाड़ फेंकना आसान नहीं था। उसके लिये तो परंपरा का प्रचण्ड प्रयास अपेक्षित था। अतः सूरिजी ने अपने शिष्य-प्रशिष्यों में भी उस भावना को बड़े वेग से फैलाया । अतः उनके पीछे आने वाले उनके कई उत्तराधिकारियों-नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि-जिनवल्लभसूरि-जिनदत्तसूरि, जिनचन्द्रसूरि प्रादि ने उनके विचार का बड़े विस्तार से प्रचार किया। किन्तु उसके बीज को उन्मूलन कर देना सहज काम नहीं था। कभी वह पुनः जोर पकड़ लेता फिर
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