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बाबू शिवप्रसाद गुप्त
संख्या १ ]
सज़ा मिली। लखनऊ-जेल में रहते हुए १५ अक्टोबर १९३२ को इन पर फ़ालिज गिरा और बायाँ अंग बेकार हो गया । यह रोग बहुत भयंकर था और डाक्टरों को इनके बचने की कोई आशा नहीं रह गई थी । इनकी नाजुक हालत देखकर गवर्नमेंट ने इन्हें २३ आक्टोबर को अवधि से पहले ही छोड़ दिया ।
बाबू शिवप्रशाद जी ने दो दफ़े विदेश यात्रा की है । पहली बार ये १६१४ में विदेश गये थे । इस यात्रा में इन्होंने मिस्र, इंग्लैंड, आयर्लंड, अमरीका, कोरिया, चीन, जापान आदि देशों का भ्रमण किया था । 'पृथ्वी प्रदक्षिणा ' नाम की पुस्तक में इन्होंने अपने इस भ्रमण का वृत्तान्त प्रकाशित किया है, जो अत्यन्त रोचक और शिक्षाप्रद है । दूसरी बार ये १६२६ के मई मास में योरप गये और २४ अप्रैल १६३० को भारत वापस आये । इस यात्रा में इन्होंने इटली, स्वीज़लैंड, फ्रांस, इंग्लेंड, जर्मनी, ज़ेकोस्लोवेकिया, आस्ट्रिया आदि देशों का भ्रमण किया । इनकी पत्नी इस यात्रा में इनके साथ थीं। इस बार ये अपने प्राइवेट सेक्रेटरी हास्य रस के द्वितीय लेखक श्री अन्नपूर्णानन्द जी को भी अपने साथ ले गये थे ।
हिन्दी भाषा के और हिन्दू संस्कृति के श्री गुप्त जी बड़े भक्त हैं । कहने की आवश्यकता नहीं कि 'मंगलाप्रसाद पारितोषिक' की स्थापना में गुप्त जी का काफ़ी हाथ था। सौर तिथियों का प्रचार और सौर पंचाङ्ग का प्रकाशन जो राष्ट्रीय दृष्टि से इतना महत्त्वपूर्ण है, इन्हीं के प्रबन्ध में और इन्हीं के पैसे से होता है। अपने जीवन के प्रत्येक कार्य में ये हिन्दी को ही स्थान देते हैं । इन्होंने अपने मोटरकार के पीछे हिन्दी में नम्बर का प्लेट लगाया था। पुलिस ने हिन्दी - लिपि में लिखे हुए नम्बर को कानून की दृष्टि से काफ़ी नहीं समझा और मोटर का चालान कर दिया । स्थानीय अदालत से ५) जुर्माना हो गया । गुप्त जी ने हिन्दी की प्रतिष्ठा कायम करने के नाम पर इस मुक़दमे को हाईकोर्ट तक पहुँचाया, लेकिन वहाँ से भी उक्त जुर्माना कायम रहा ।
हिन्दी - साहित्य की जो कुछ सेवा 'ज्ञान मण्डल' और 'आज' के द्वारा हुई है उससे हमारे देशवासी अच्छी
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तरह
परिचित हैं । इसके अलावा गुप्त जी स्वयं अनेक बहुमूल्य पुस्तकों के प्रकाशक हैं, जैसे 'बुद्धचर्या', 'तिब्बत में बौद्धधर्म' 'हिन्दुत्व' इत्यादि। इनका पुस्तकालय हिन्दी, संस्कृत और अँगरेज़ी की प्राप्य और दुष्प्राप्य पुस्तकों का भाण्डार है, जिसका मूल्य ( यदि ऐसे पुस्तकालयों का मूल्य लगाया जा सकता है) कम से कम ४ लाख रुपया होगा ।
गुप्त जी का स्वास्थ्य अभी तक पूर्ण रूप से सन्तोषजनक नहीं है, तो भी पहले की अपेक्षा बहुत अच्छा है । प्रातःकाल ५ बजे उठते हैं और सवेरे का समय गायत्री के पाठ में लगाते हैं । ७ से ८ बजे तक का समय भजन सुनने में जाता है। इसके बाद ११ बजे तक समाचारपत्रों को पढ़ाकर सुनते हैं । दोपहर का विश्राम करते हैं और ३ बजे से ५ बजे तक फिर अखबार सुनते हैं । सूर्यास्त होने के पहले ही संध्या करके भोजन कर लेते हैं । शाम को थोड़ी देर मोटर पर हवा खाने जाते हैं। शाम का यह समय अर्थात् ८ || से ६ || तक ज्यादातर पूज्यपाद पंडित मदनमोहन मालवीय जी के पास बातचीत में समाप्त होता है। रात को ६ बजे से १० बजे तक वाल्मीकीय रामायण का या किसी अन्य धर्म ग्रन्थ का पाठ सुनते हैं ।
गुप्त जी ने अपने जीवन से भारतीय रईसों और ज़मींदारों के सामने एक अनुकरणीय और श्रादर्श जीवन पेश किया है । इनकी ठोस सेवाओं ने और इनके अनुकरणीय राष्ट्र प्रेम ने देश में इनके नाम का इतनी ख्याति दे दी है कि मेरे लेख या मेरे ऐसे लेखकों के अनुग्रह की उसे ज़रा भी ज़रूरत बाक़ी नहीं रह गई है ?
अन्त में मैं बाबू शिवप्रसाद जी गुप्त के दौहित्र और उत्तराधिकारी श्री शेरसिंह जी को हृदय से धन्यवाद दूँगा, जिनकी सहायता से ही इस लेख का लिखना सम्भव हो मका है। श्री शेरसिंह जी इस समय काशी-विश्वविद्यालय में द्वितीय वर्ष में शिक्षा पा रहे हैं । अत्यन्त योग्य और होनहार व्यक्ति हैं और जिनसे यह पूर्ण ग्राशा है कि गुप्त जी के सिद्धान्तों और आदर्शों को ये चिरकाल तक जीवित रक्खेंगे ।
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