Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
सिद्धि होती है । जो अपेक्षा-कथनको नहीं समझते, वे वस्तुस्वरूपके यथार्थ विवेचक भी नहीं हो सकते, इसीलिये इस श्लोकमें यह बात प्रगट की गई है कि जो व्यवहार-निश्चयके परिज्ञानी हैं, तथा मुख्यविवक्षा और गौणविवक्षा के निरूपण से शिष्योंके प्रगाढ़ अज्ञानान्धकारको नष्ट करनेवाले हैं, वे जगत्में धर्मका प्रसार कर सकते हैं ।
. संसारी जीवोंकी समझ निश्चयमिह भूतार्थ व्यवहारं वर्णयंत्यभूतार्थ ।
भूतार्थबोधविमुखः प्रायः सर्वोपिः संसारः॥ ५ ॥ अन्वयार्थ-(इह' ) इस जगतमें ( निश्चयं ) निश्चयको ( भूतार्थ ) सत्यार्थ ( व्यवहारं ) व्यवहार को (अभूतार्थ ) असत्यार्थ ( वर्णयंति ) कहते हैं; ( सर्वः अपि) समस्त ही ( संसारः ) संसार ( प्रायः ) बहुधा ( भूतार्थबोधविमुखः ) यथार्थ ज्ञानसे विमुख है।
विशेषार्थ-इस जगत्में लोग निश्चयनयको ठीक बतलाते हैं और व्यवहारनयको मिथ्या बतलाते हैं, परंतु वास्तव में यथार्थज्ञानसे प्रायः सभी संसारी अजानकार हो रहे हैं । बहुतसे पुरुषोंकी ऐसी धारणा है कि निश्चयनय ही ठीक है, क्योंकि उसी का विषयभूत पदार्थ ठीक है । आत्मा सदा शुद्ध ही रहता है, यह जो कुछ कर्मों का विकार प्रतीत होता है, उससे आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं है, आत्मा न अल्पज्ञानी है, न वेदनासहित है, न नारकी है, न और कोई है, न वह रोगी है, न प्रमादी है,ये सब पुद्गलका भाव है, आत्मामें उसका कुछभी भाव समझना भ्रम है, आत्मा सदाटकोत्कीर्णवत् शुद्ध बुद्ध है; ऐसी कल्पना उन लोगों की है। जो केवल निश्चय को ही सत्यभूत समझे बैठे
(१) इस प्रकरणके पूर्वापर श्लोकोंको देखनेसे विदित होता है कि ग्रन्थकार श्री अमृतचन्द्रसूरिने निश्चयनयके समान व्यबहारनयको भी उपादेय बतलाया है, तथा व्यवहारनयको निश्चयका साधक बतला कर उसका परिज्ञान आवश्यक बतलाया है। दूसरे, उक्त आचार्यकी अन्यान्य कृतियोंमें भी व्यवहार को उपादेय कहा गया है। जो एकान्तरूपसे व्यवहारनयको मिथ्या समझते हैं, उन्हें इन्होंने तत्ववोधसे रहित बतलाया है। इसलिए उक्त आचार्यके अभिप्रायको जो कुछ हमने समझा है. तदनुसार इस श्लोकका उपयुक्त अर्थ किया है।
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