Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
पुरुषार्थं सिद्ध पाय
साधक है । व्यवहारका जितना भी विषय है, वह सब पदार्थस्वरूपका बोध कराता है; क्योंकि पदार्थके अवक्रय होने पर भी उसका दूसरेको बोध करानेके लिए सिवा भेद निरूपणके और कोई मार्ग नहीं है । यदि पुद्गल द्रव्यसे भिन्न जीवपदार्थका बोध कराया जाय तो कहना होगा कि जीवज्ञान-दर्शनसुख-वीर्य गुणवाला है। पुद्गल रूप-रस-गंध-स्पर्शगुणवाला है । इस भेद को निश्चयनय ठीक नहीं समझता, परंतु वस्तुस्वरूपके बोधका कारण होने से व्यवहारनयसे ठीक है जीव क्रोधी भी प्रतीत होता ही है, वह शरीरविशिष्ट भी है, अल्पज्ञानी भी हैं । इन सम्पूर्ण अवस्थाओं को अवास्तविक - अयथार्थ नहीं कहा जा सकता, परंतु ये सब अवस्थायें जीवकी कर्मजनित हैं, और व्यवहार परसंबंधित अवस्थाओंको विषय करता है इसलिये व्यवहारदृष्टिसे व्यवहारनयका विषय भी ठीक है । यदि वह ठीक न माना जाय तो कर्मका फल – पुण्य-पाप-नरक-स्वर्गादि व्यवस्थायें केवल काल्पनिक ठहरेंगी । हाँ इतना अवश्य है कि जिस दृष्टिसे जो घटित किया जाय, उसी दृष्टिसे वह घटित हो सकता है। मुक्त और संसारी, दोनों जीवकी ही अवस्थायें हैं, उन्हें असत्य नहीं कहा जा सकता । परंतु अपेक्षाभेदसे उनमें भेद है । एक समय में एक ही अपेक्षा से पदार्थका निरूपण किया जा सकता है, इसलिए एक समय में एक धर्म मुख्य ठहरता है, दूसरा अविवक्षितधर्म गौण ठहरता है । यदि व्यवहारनयकी अपेक्षासे जीवका विवेचन किया जाय, तो मनुष्य, तिर्यञ्च, देव, नारकी इन पर्यायोंमेंसे जिस पर्याय में जीव उपस्थित है, उस पर्याय की मुख्यतासे ही उसका निरूपण किया जायगा । उस समय जीवकी शुद्ध अवस्थाका निरूपण गौण पड़ जाता है । जिस समय निश्चयनयकी अपेक्षासे जीवका विवेचन किया जायगा, तो जीव चाहे किसी भी पर्यायमें क्यों न हो उसका शुद्धस्वरूपसिद्धस्वरूप ही निरूपण किया जायगा । उस समय उसकी कर्मजनित अशुद्ध अवस्थाका निरूपण गौण पड़ जाता है । इसी विवक्षाभेद से वस्तुकी
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
[ २१
Jain Education International