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१० | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ स्वर्ग अपवर्ग की लम्बी लम्बी गप्पें-सप्पें लगाते रहते हैं। अतएव इन लोगो से कडा परिश्रम करवाना चाहिए । अन्यथा यह साधु-सस्था देश समाज एव परिवार पर भारभूत और वोझ स्वरुप हैं।"
__नि मन्देह ऐसी भ्रात मान्यतावाले मानव विपलता से भी ज्यादा खतरनाक हैं । चूकि मिथ्या मान्यता के किंकर वे नर-नारी अपने हाथो से ही अपनी उज्ज्वल सस्कृति, धर्म एव प्राचीन शुद्ध परम्परा को पगु-लुली-लगडी एव अन्धी बनाना चाहते हैं। अफसोस । जो वस्तु, जो तत्त्व डुबोने वाले, व उभय लोक के लिए अनिष्टकारी एव हानिकारक है, उनसे तो अत्यधिक मोहब्बत-प्रेम और जो तत्त्व जीवनोत्थान के लिए एकदम ठीक दिशा-दर्शन देते हैं, उनसे नफरत । घृणा और अवहेलना भरी दृष्टि | इसी को तो कहते हैं मिथ्या ज्ञान का भास होना ।।
श्रमण शब्द श्रम का द्योतक सत का पर्यायवाची शब्द "श्रमण" भी है। यह श्रमण शब्द परिश्रम का द्योतक है । अर्थात जो निरन्तर श्रम, महनत, उद्यम करता है, उन्हें भले श्रमण कहो, भले साधु-सन्त कहो फिर ये फालतूवेकार और आलसी से ? मालूम होता है कि-मानव अभी तक "श्रम" के सही सत्य अर्थ की तह तक नही पहुचा है । अतएव सत धर्मवृक्ष के वीज स्वरूप, एव आर्य सस्कृति को शुभालकृत करने वाले चमकते दमकते हार हैं।
जहाँ तक सत सेना की मदाकिनी मथर गति से मद-मद बहती रहेगी, वहाँ तक देश समाज मे सत्य-सयम शील की उपासना चलती रहेगी। आस्तिकवाद एव शुद्ध परम्परा के नगाड़े गू जते रहेगे । और करुणा की कोमल कमनीय धारा फूटती रहेगी।
अतएव सत जीवन का व्यक्तित्व बहुमुखी रहा है । तुच्छ एव महान के लिये सर्वथा अनुकरणीय एव स्तुत्य है । मानव रल अय के चेतन्य स्वरूप सत सरोवर मे डुबकी लगाकर सुकृत्य की विमल विशद एव वरिप्ट-वीथिका के शिखर पर पहुचकर जीवोत्थान की प्रेरणा सीखता है।
है बडी शक्ति वडा वल,
सत वचन सत्सग मे । रगने वाला हो तो रग ,
___सव को एक ही रग मे ॥
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