________________
१५४ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन गन्य है। वे सिद्वान्त निम्न प्रकार है--जीवन मे अहिंसा, विचारो मे अनेकातदृष्टि, वाणी मे अपेक्षावाद एवं समाज मे अपरिग्रह सिद्धान्त ।
जीवन में अहिंसा: भ० महावीर ने धर्म के विस्तृत क्षेत्र मे सर्व प्रथम अहिंसा-शख पूरा । जीवन के अस्तित्व का मद्भाव अभिव्यक्त कर प्राणी मात्र को जीने की स्वतन्त्रता प्रदान की। उन्होने बताया कि---कोई भी नर-नारी अपने निजी स्वार्थ के लिए किसी अन्य भूत-मत्व को मिटाता अथवा मरने का दुस्साहस करता है, तो वह अपने को ही मारता है, मिटाता है जैसा कि"तुमसि नाम त चेव ज हतत्व ति मनसि ।"
-आचारागसूत्र, १२५ नि सदेह वह अहिंसावृत्ति से दूर भागता है। माना कि स्वार्थी नर नारी कभी भी दूसरो के हित की परवाह न कर अपने हित की रक्षा करते हैं। इसकेलिए वह अपर जीवो के अस्तित्व को मिटाने का दुस्साहस करता है। वस्तुत इस दयनीयवृत्ति से उसे आत्मशाति कैसे मिल सकती है ? चूकि अन्याय अत्याचार एव हिंसा-हत्या आदि अशाति के मूल कारण है । जिन्हे वह अन्तर्ह दय मे स्थान दे बैठा है। फलस्वरूप वह भयभीत वना रहता है, कही मेरा शत्रु मुझपर आक्रमण न कर दे । मेरे अस्तित्व एव सत्ता को कोई छीन नही ले । इस प्रकार सकल्प-विकल्प के अन्तर्गत जीवन विताता हुआ सिद्धान्तो के विपरीत आचरण करता है। सिद्धान्त मे तो कहा है"सब्वे जीवा वि इच्छति जीविउ न मरिज्जिउ ।"
-दशवकालिक सूत्र अर्थात् सभी जीव राशि मरने की अपेक्षा जीना और दुख की अपेक्षा सुखी होना चाहते हैं। सभी को जीवन प्रिय है । अतएव ज्ञानी के ज्ञान का यही सार है कि वे सभी को समान जाने एव ऐसा जानकर किसी की हिंसा न करे । “एव खु नाणिणो सार ज न हिसइ किंचण" ।
-सूत्रकृताग सूत्र, १।१।४।१० आर्य धर्म के प्रति जो पूर्ण श्रद्धावान् है, उन्हे चाहिए कि वे "अहिंसा परमो धर्म" के केवल नारे लगाकर जीवन को बहलावे नही, अपितु “जीवो और जीने दो” को अन्तरात्मा मे स्थान दें। भावात्मक दृष्टि से उसे कार्यान्वित करे । अहिंमा भगवती का अत्यधिक महत्व है -
एता भगवई अहिंसा-भीयाण व शरण, पक्खीण व गयण, तिसियाण व सलिल, खुहियाण व असण, समुद्द मज्झे व पोतवाहण, दुहियाण च ओसहिबल, अडवि मझे व सत्य गमण, एत्तो विसिढ तरिया अहिंसा ।"-(प्रश्नव्याकरण मूत्र)
अहिमा भगवती-मितो के लिए शरणदायी, प्यामो के लिए पानी, बुभुक्षुओ के लिए आहार, नमार-ममुद्र मे पोत (जहाज) के समान, रोगियो के लिए औपधि एव भव-वन मध्य सार्थवाह के समान है, ऐना भ० महावीर ने कहा है । तदनन्तर ही अहिमामय जीवन के अतराल से मैत्री भावना का मधुर निर्झर प्रस्फुटित होता है । तदनन्तर ही पर वेदनानुभूति हो सकती है ।
विचारो में अनेकांत दृष्टि "जीवाजीवे अपाणतो मह सो नाहीइ सजम ।" अर्थात्-जीव-अजीव के स्वरूप को नही