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१६८ ! मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ विभिन्न टीकाओ मे प्रभु महावीर के सत्ताइस पूर्व भवो का वर्णन मिलता है । दिगम्बराचार्य गुणभद्र ने तेतीन भवो का निरूपण किया है। और इस सन्दर्भ मे यह भी ज्ञातव्य है कि-नाम स्थल तथा आयु आदि के सम्बन्ध मे भी दोनो परम्पराओ मे अन्तर की रेखाएं खीची हुई है। किन्तु यह तो निश्चयात्मक ही है कि उनका तीर्थकरत्व अनेक जन्मो की साधना आराधना का परिणाम था।
यहाँ यह सहज मे ही का उद्बुद्ध हो सकती है कि सत्ताईम पूर्व भवो का निरूपण क्यो किया गया ! शका-समाधान में यह स्पप्ट कर देना आवश्यक है कि भवो की जो गणना की गई है वह सम्यक्त्व उपलब्धि के पश्चात् की है। प्रभु महावीर के जीव ने सर्व प्रथम नयसार के भव मे सम्यक्त्व की प्राप्ति की। अत उमी भव में उनके पूर्व भवो की परिगणना की गई है । यहाँ एक बात और ज्ञातव्य है कि मत्ताईम भवो की जो गणना की गई है वह भी क्रमवद्ध नही है। इन भवो के अतिरिक्त अनेक बार प्रभु के जीव ने नरक देव आदि के भव किये थे । वहाँ आचार्य ने कुछ काल पर्यन्त ममार-भ्रमण करके ऐमा उल्लेख कर आगे व गये हैं।
श्रमण प्रभु महावीर का जीव मत्तरह भव मे महाशुक्र कल्प मे उत्कृष्टस्थिति वाला देव हआ। देवनोक की आयु पूर्ण कर वह पोतनपुर नगर मे प्रजापति राजा की महारानी मृगावती की कुक्षि में उत्पन्न हुआ।१० माता ने सप्न स्वप्न देवे ! जन्म होने पर पुत्र के पृष्ठ भाग मे तीन पमलिा होने के कारण उनका नाम करण "त्रिपृष्ठ' हुआ । नुकुमार सुमन की तरह उनका वचन नित्य-नृतन अगडाई ले रहा था । उनका अत्यधिक इठलाता हुआ तन सुगठित वलिष्ठ तथा भुवन भास्कर की स्वर्णिम प्रभा सा कान्निमान था, और उनका हृदय मखमल मा मृदुल था । वचपन से जब वे योवन के मधुर उद्यान मे प्रवेश किया तब एक घटना घटिन होती है।
राजा प्रजापति प्रतिवानुदेव अश्वग्रीव के माण्डलिक थे । एकदा वासुदेव ने निमितज्ञ के समक्ष अपनी जिनामा सम्प्रस्तुत करते हुये कहा-मेरी मृत्यु कैसे होगी ? निमित्तज्ञ ने बताया कि----'जो आप के चण्डमेच दून को पीटगा' । तुङ्गगिरि पर रहे हुए केमरी सिंह को मारेगा, उसके हाथ से आपकी मृत्यु
५ (क) महापुराण-द्वितीय विभाग
(ब) उत्तर पुराण, पर्व ७४ पृ० ४४४ -गुण भद्राचार्य ___ मन्प्रति यथा भगवता सम्यक्त्वमवाप्न यावतो वा भवानवाप्ननम्यक्त्व ससार पर्यटितवान् ।
-आवश्यक मल० वृत्ति १५७ । २। (क) जावश्यक भाप्य गा० २ । (ख) आवश्यक नियुक्ति गा१८८ मनारे कियन्तमपि कालमटित्वा ।
-आवश्यक नियुक्ति म० २४८ ६. (क) निपप्टि शलाका ० १०११ | १९७१ ।
(ख) आवश्यकमलय गिरि वृति २४६ |
(ग) मावश्यक चूर्णि-२३२ । १० (क) समवायाग मूत्र २५७
(ख) आवश्यक चूणि पृ० २३२ (ग) आवश्यक मन० गिरि वृत्ति० २५० | १