Book Title: Pratapmuni Abhinandan Granth
Author(s): Rameshmuni
Publisher: Kesar Kastur Swadhyaya Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 267
________________ चतुर्थ खण्ड धर्म, दर्शन एव सस्कृति जनदर्शन मे कर्म-मीमासा | २३५ सक्षिप्त रूप से कर्मों की परिभापा यहाँ दर्शाई गई है। विशेष जानकारी के लिये कर्म ग्रन्थ अथवा तत्सम्बन्धित अन्य ग्रन्धो का अध्ययन करना चाहिए । कर्म पुद्गलो का जीवात्मा स्वय वैभाविक परिणति के कारण आह्वान करता है । जिस प्रकार अमल आकाश मे सूर्य चमक रहा है किन्तु देखतेदेखते घटा उसे ढक देती है और घनघोर वृष्टि भी होने लग जाती है। उस घटावली को किसने वुलाया ? वायु के वेग ने ही उसे बुलाया और तत्क्षण वायु वेग ही उसे विखेर देता है । उसी प्रकार मन का विकल्प कर्म के बादलो को लाकर आत्मा रूपी सूर्य पर आच्छादित कर देता है । और ऐसा भी अवमर आता है जब आत्मा त्वी सूर्य का तेज पुन जागृत हो जाता है। तव पुन उभरी हुई सारी घटा छिन्न-भिन्न हो जाती है। __ उपर्युक्त कर्म वर्गणा प्रकृति-स्थिति-अनुभाग और प्रदेशबन्ध रूप में परिणमन होती है।' स्थिति और अनुभाव बघ जीव के कपाय भाव से होता है और प्रकृति तथा प्रदेश बन्ध योग से होता है। कपाय के सद्भाव मे योग निश्चित होते है । चाहे एक-दो या मन-वचन-काया ये तीनो योग हो । किंतु योग के मद्भाव मे कपाय की भजना अर्थात् होवे किंवा नही । ग्यारहवें से तेरहवे गुणस्थान तक योग होते हैं । किंतु कपाय नहीं है । विना कपाय के योग मात्र से पाप प्रकृति का वन्ध नही होता है कपाय रहित केवल योग मात्र से दो सूक्ष्म समय का वध होता है । वह एकदम रूक्ष और तत्क्षण निर्जरने वाला और वह भी सुखप्रद होता है । उसे ईर्यापथिक आस्रव कहते हैं। कापायी भाव के अन्तर्गत जो कर्म वन्ध होता है । उसे साम्परायिक आश्रव कहा है । यह वन्ध रक्ष और स्निग्ध इस प्रकार माना गया है। भले रुक्ष किंवा स्निग्ध वन्ध हो । कृत कर्म विपाक को भोगे विना कभी छुटकारा नही होता है । आगम की यह पवित्र उद्घोपणा है-- "कडाण कम्माण न मोक्ख अत्यि ।"वध योग कर्म पुद्गल शुभ और अशुभ दोनो प्रकार के होते हैं । तदनुसार समय पर कर्ता को विपाक भी वैसा ही देते हैं । ___ वस्तुत सपूर्ण कर्मारि पर जव विजय पताका फहराने मे जब साधक सफल हो जाता है तव वह अनत आनदानुभूति का अनुभव करने लगता है और सदा-सदा के लिए वह अमर वन जाता है। १ पयइ सहवो वुत्तो, णिई कालावहारण । अणुभागो एसोणेयो, पएसो दल सचओ ।। -नवतत्त्व गा० ३७ २ सकपायाकपाययो साम्परायिकेर्यापथयो । -तत्त्वा० सूत्र अ० ६। सू०५ सुच्चिणाकम्मा सुच्चिणफला हवति । दुच्चिणाकम्मा दुच्चिणफला हवति ॥ -भ० महावीर, औपपातिक सूत्र ५६

Loading...

Page Navigation
1 ... 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284