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संघ की उज्ज्वल परम्परा के प्रतीक : मेवाड़भूषण महानयोगी श्री प्रतापमल जी महाराज
-मदनलाल जैन-(रावलपिण्डी वाले)
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मेवाड भूपण परम श्रद्धय महान् योगरािज गुरुदेव श्री प्रतापमल जी महाराज के महान् चारित्र एव समाज सेवा के उपलक्ष मे नो अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है-यह बढी प्रसन्नता की बात है । ग्रन्थ का प्रकाशन इसलिये किया जाता है कि-भावी जनता उस महान् दिव्य ज्योति के महान् कर्मठ जीवन के सम्बन्ध में कुछ जान सके और उससे प्रेरणा पाकर जनमानस अपने आपको उज्ज्वल एव उन्नत कर सके। यह अभिनन्दन ग्रन्थ भी इसी दिशा मे एक महान् प्रयास है । हम इसकी महान् सफलता चाहते हैं।
महान् योगी! विश्व मे समय-समय पर महान विभूतिया मानवता के कल्याण के लिए जन्म लेती रहती हैं। ससार के जिन महान् पुरुपो ने अपने जीवन को ससार के भोग-विलासो मे नप्ट न करके सत्य तथा ज्ञान के समुज्ज्वल अन्वेपण मे लगाया, उन्ही महान् पुरुपो मे परम श्रद्धय महान् योगी, मेवाड भूपण पडित-रत्न, त्याग-मूर्ति स्वामी श्री प्रतापमल जी महाराज हैं, जो सच्चे सयमी, श्रमण संस्कृति के प्रतीक बनकर इन महान् विशाल देश भारत की सुन्दर भूमि पर अवतरित हुये हैं।
बाल्यकाल! परम श्रद्ध य श्री स्वामी प्रतापमल जी महाराज ने वाल्यकाल से ही त्याग, तप और वैराग्य को अपना लक्ष्य बनाये रखा, शिशु-सा सरल मन और सेवा की मौरभ से महकता मन है आप श्री जी का, शुभ जन्म देवगढ मदारिया मेवाड भूमि मे ईस्वी सन् १६०८ को हुआ था। वाल्यकाल से ही जैन सन्तो के शुभ दर्शनो का लाभ आप श्री को प्राय मिलता ही रहता था । जिससे धार्मिक जागृति की छाप आप श्री जी के रोम-रोम मे समा चुकी थी।
दीक्षा! आप अभी केवल १४ वर्ष के ही थे, इतनी छोटी सी अल्प आयु मे ही आप को वैराग्य उत्पन्न हो गया, और ईस्वी सन् १९२२ मे मन्दसौर मे जैन दीक्षा को अगीकार करके एक जैन साधु हो गये । आप श्री जी ने दीक्षा परम श्रद्धेय पूज्यवर गुरुदेव जी वादीमान-मर्दक श्री नन्दलाल जी महागज से ली । आप श्री जी के जीवन मे सरलता, सौम्यता, मृदुता और सेवाभाव मुस्य रूप से कूटकूट कर भरे हैं । आप श्री ने शरीर द्वारा सुख दुख की निरपेक्षता का अपने जीवन की प्रयोगशाला के द्वारा जो महन् प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत किया है, वह सदैव स्मरणीय है।
युग-प्रर्वतक । __ परम श्रद्धेय श्री स्वामी प्रतापमल जी महाराज एक युग-प्रर्वतक महान् पुरुप हैं। आप श्री जी ऐमे महान् सन्त हैं, जिन्होंने सदा ही ससार मे और अपने साधु-सघ मे सुख और शाति को स्थिर रखने के लिए नमता, सत्य तथा अहिंसा को ही परम आवश्यक बतलाया । सगठन, अनुशासन-समाज-सेवा और सहनशीलता आप श्री के जीवन के मूल सिद्धान्त हैं। आप श्री जी धार्मिक जागति, शिक्षा-प्रसार एव समाज उत्थान मे जो आजकल योगदान दे रहे हैं-वह भुलाया नहीजा सकता।