Book Title: Pratapmuni Abhinandan Granth
Author(s): Rameshmuni
Publisher: Kesar Kastur Swadhyaya Samiti

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Page 266
________________ २३४ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ जिस कर्मोदय के कारण जीव-जीवित रहता है और भय हो जाने पर मरता है, वह पाचना आयुप कम कहलाता है । आयु कर्म का स्वभाव कारावास के मदृश्य है। जैसे न्यायाधीश अपराधी को उसके अपराध के अनुसार अमुनाकाल तक जेन मे रखता है। यद्यपि अपगवी की गलामा गन्दी छुटकारा पाने की इच्छुक अवश्य रहती है । तथापि अवधि पूर्ण हुए बिना नहीं निकल पाता है। वैसे ही आयु कर्म जब तक बना रहता है, तब तक आत्मा प्राप्त हुए उस शरीर को नहीं न्याग सकता है। जब आयु कर्म पूरा भोग लिया जाता है, तब शरीर स्वत छुट जाना है। आयु कम की उनर प्रकृतियाँ चार है-देवायु, मनुष्यायु, तियंचायु और नरकायु । १ ।। आयुग्य कर्म के दो प्रकार है-अपवर्त्तनीय और अनपवर्त्तनीय आयुप । पानी-जाग जन-गनविप एव वृक्ष-झपापात आदि वाह्य नैमित्तिक कारणो से शेप आयु जो पच्चीस वपों का भो नि याग्य है उसे अन्त महत्त में भोग लेना, अपवर्तनीय आयुप कहते हैं । यह तिर्यंच गति वाले एकेन्द्रिय, द्विन्द्रियत्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय एव पचेन्द्रिय जीवो को एव मनुप्य गति वालो को होता है। जो आयु किसी भी कारण से कम नहीं हो सके, अर्थात् जितने काल तक का आयुष्य बन्धन किया है उसे पूर्ण भोगी जाय, उस आयु को अनपवर्तनीय आयुप कहते हैं। जैसे देव-नारक-चरम शरीरी उत्तमपुरुप अर्थात् तीर्थकर चक्रवर्ती वासुदेव, बलदेव और असत्यात वर्षों की आयुष वाले इन आत्माओ का आयु वीच मे नही टूटता है ।। छठा है नामकर्म-इसका स्वभाव चित्रकार (पेटर) के समान है। जैसे चित्रकार विविध प्रकार के आकार-प्रकार वनाता एव विगाडता है। उसी तरह नाम कर्म रूपी चित्रकार भी शुभाशुभ मय विविध रचना बनाया करता है । इस कर्म की वशावली काफी विस्तृत रही है । किमी अपेक्षा से ४२ भेद, किसी अपेक्षा से ६३ भेद और किसी अपेक्षा से १०३ और किसी अपेक्षा से ६० भेद भी माने गये हैं । विस्तृत वर्णन कर्म ग्रथ मे उल्लिखित है। गोत्र सातवा कर्म है । इस कर्म का स्वभाव कुम्भकार के सदृश्य है। जिस प्रकार कुम्भकार नानाविधि घट निर्माण करता है । जिनमे कुछ तो ऐसे होते है-जिनको ससारी नर-नारी सिर पर रख करके अर्चना करते हैं और कुछ कुम्भ ऐसे होते हैं-जिनको मद्य किंवा वुरी वस्तु भरने के काम में लेते हैं । इमीप्रकार जिम कर्म के उदय भाव के कारण जो उत्तम कुल मे जन्म लेते हैं । यह उच्च गोत्रीय कहलाते हैं और जिनका निम्न कुल परिवार मे जन्म हुआ है उन्हे नीच गोत्रीयकर्म कहा जाता है । इस कर्म के मुख्य रूप से दो भेद हैं उच्च गोत्र और नीच गोत्र । जिस कर्म के प्रभाव से कार्य के मध्य-मव्यमे विघ्नबाधा आ खडी होवे उस कर्म का नाम अन्तराय कर्म है । जैसे --अन्तेतिष्ठाते इति =अन्तराय कर्म है। इसके पांच भेद हैं । दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, परिभोगान्तराय और वीर्यान्तराय कर्म हैं । १ नारकतर्यज्योनमानुपदेवानि ॥ -तत्त्वार्थ अ० ८ सू ११ २ औपपातिक चरमदेहोत्तम पुरुषाऽसख्येयवर्पायुपोऽनपवायुप । -तत्त्वा० अ२ सु० ५२ ३ उच्चर्नीचश्च -तत्त्वार्थ सूत्र अ० ८ सू० न० १३ दानादीनाम् -तत्त्वार्थ सूत्र अ ८ सू० न० १४

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