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चतुर्थ खण्ड धर्म, दर्शन एव सस्कृति जैनदर्शन मे कर्म-मीमासा | २३३
लोभ
मान
कर्म जीव रूपी राजा की पदार्थों की देखने की शक्ति मे रुकावट पहुंचाता है। दर्शनावरणीय कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ-चक्ष -चतुप्क और निद्रापचक इस प्रकार नी भेद है।'
___जो कर्म स्व-पर विवेक मे तथा स्वभाव रमण मे वाधा पहुंचाता है अथवा जो कर्म आत्मिक सम्यक् गुण और चारित्रगुण का नाश-ह्रास करता है । जैसे शरावी-शराब का पान करने के पश्चात् विवेक से भ्रष्ट हो जाता है। वैसे ही मोह-मदिरा प्रभावेण देहधारी के अन्त हृदय मे प्रदीप्त विवेकरूपी भास्कर स्वल्प काल के लिए अस्त सा हो जाता है । इस कर्म की प्रधान प्रकृतिया दो मानी गई हैदर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय और दोनो की परम्परा विस्तृत रूप से परिव्याप्त है ।२
जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसा ही समझना दर्शन कहलाता है। अथवा तत्त्व-श्रद्धान को दर्शन कहा जाता है। यह आत्मा का मौलिक गुण है। इसकी रुकावट करनेवाले कर्म को दर्शनमोहनीयकर्म कहते हैं । सम्यक्त्व-मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय और मिश्रमोहनीय कर्म अर्थात् यह त्रोक दर्शनावरणीय कर्म का वशज है ।
जिसके द्वारा आत्मा अपने असली स्वस्प का विकास करता हुआ उन गुणो को जीवन मे उतारता है उसे चारित्र कहते हैं । यह भी आत्मिक गुण है। इसकी घात करनेवाले कर्म को चारित्रमोहनीय कर्म कहते है। इसकी प्रधान दो प्रकृतिया हैं-कपायमोहनीय और नौ कषायमोहनीय । भेदानुभेद निम्न प्रकार है
अनतानुबधी चतुप्क-क्रोध मान माया अप्रत्याख्यान चतुष्क-क्रोध
माया लोभ प्रत्याख्यान चतुष्क-क्रोध मान माया लोभ सज्वलन चतुष्क-क्रोध मान
लोभ नौ कपाय मोहनीय के नव भेद निम्न है
(१) हास्य (५) शोक (२) रति (६) 'जुगुप्सा (३) अरति (७) स्त्री वेद (४) भय (८) पुरुप वेद
(६) नपु सक वेद १ चक्ष रचक्ष रवधिकेवलाना निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचला स्त्यानगृद्धिवेदनीयानि च
-तत्त्वार्थ अ सासूचा मोहणिज्ज पि दुविह, दसणे चरणे तहा।
दसणे तिविह वुत्ते, चरणे दुविह भवे ॥ -उ० अ ३३ गा ८ ३. तत्त्वार्यश्रद्धान सम्यग्दर्शनम् । -तत्त्वार्थ अ १। सू२ ४ सम्मत्त चेव मिच्छत्त, सम्मा मिच्छत्तमेव य ।
एयाओ तिन्नि पयडीओ, मोहणिज्जस्स दसणे ।। -~-उ० अ ३३ गा६॥ ५ सोलसविह भेएण, कम्म तु कसायज ।
सत्तविह नवविह वा, कम्म तु नोकसायज । -उ० अ०३३। गा ११
माया
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