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२४२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ भोग रह्यो है । ऐ वास्ते जीव ग दो भेद किया गया (१) मुक्त (२) ममागे । आत्मा रा तीन भेद किया गया, वहिरान्मा, अन्तरजात्मा और परमात्मा । जगत में राच्यो पाच्यो रहनआलो बहिरमात्मा है। समारिक पर-पदार्य सु उदामीन और अनाशक्ति भाव राखते हुवो बात्मा री तरफ शुपान गराण आले ने अन्तर आत्मा केयो जावे है, और आन्मा रे पूर्ण शुद्ध म्वरूप या स्वगाय मीर गुण ने प्रकट कर दणं वालो पन्मान्मा मानियो जावे । इये गू साधारण समारिक आत्मा और गिद्ध परमात्मा में मोटा अतर पट जावे । और परमात्मा गर मिढ हुवण वास्ते जिका व्यक्ति वे स्थिति में प्राप्त कर लिया है बार प्रति आदर्श और श्रद्धा रो भाव गवणो जरूरी है । और ये ई वान ने लेर जन धर्म में भक्ति भाव गे विधाय हुयो । तीर्थंकरा और गुरुजनारी भक्ति जरूरी मानी गई । इस तरह जन और जनेतर दोना मे भक्ति ने जरूरी और परमात्मा वनने या भगवान खने पहुंचने गे उत्तम मार्ग मान लियो गेयो। भक्त लोगा और कईजना भक्ति माहित्य रे निर्माण में बहुत बडो योग दियो । राजस्थानी भक्ति माहित्य कार ली दोनो विचारधाराआ अर्थात् जैन और जैनेतर दोनो धमों न सम्बन्धित है। इये वास्ते ही इतो पुलामी करणो जरूरी हुयो, जिके मू राजस्थानी भक्ति साहित्यरे उद्भव, विकास और भिन्न-भिन्न स्वरुपा गेमही जान हय सके है। हालताई राजस्थानी भक्ति माहित्य पर कोई योज और चिन्तन पूर्ण रान्य नहीं लिस्यो गयो है। पण वास्तव मे ओ एक वडो शोध प्रवन्ध रो विपय है। है तो इये निवन्ध मे राजस्थानी भक्ति साहित्य सम्बन्धी कुछ मुन्य बातागे ही उल्लेख करमू ।
राजस्थानी साहित्य फुटकर रूप में तो ११-ची १२-वी शताब्दी मे भी रचणी शुरु हुय गयो, पण स्वतत्र रचना रे रूप मे १३-वो शताब्दी सू साहित्य निर्माण गे काम अच्छी तरह हुवण लागयो। जनेहि इये शताब्दी री बहुत नी जैन रचनावा आज भी प्राप्त हैं। वा मे कई तो चरिय काव्य रूप मे है, पण भक्ति रचना रो आरम्भ इये शताब्दी तू ही हो जावे है । म्हारे मपादित ऐतिहासिक जैन काव्य सग्रह मे शाह रैण और कवि भताऊँ रे विणावडा दो जिनपति सूरि गीत प्रकाशित हुआ है। जिके सू वा कविया री भक्ति भावना रो काई परिचय मिले है । प्रारम्भ मे ही शाह रैण लिखे है
युगवीर जिनपतिसूरि गुणगाईसू, भक्तिभर हरसिहि मनरमल । तिहूअण तारण शिवमुख कारण वछाय पूरण कल्पतरो। विधन विनासन पाव पणासण, गुरित तिमिर भर सहसकरो। अतिम पक्ति मे कवि लि
एहू श्रीजिनपतिसूरि, गुरु जुग पवरु-शाह रयण इम सथुणईए ।
समरई जे नरनारी निरतर, ताहा घर नवनिधि सपजईए । कवि भत्तउ आपरे जिनपति सूरि गीत रे अत मे लिखे हैं -
लीणऊ मे कमलेहि भमरजिम भत्तउ, पाय कमल पणमिइ कहइ ।
समरइ जे नर नार निरन्तर तिहा घरे रिधि नावानाह लहइए ।
जिन पतिसूरि रा दोनू एक गुरु भक्तकवि सवत् १२७७ रे आस-पास ये गीत वणाया है। इस तरह रा गुरु गीता री परम्परा करीव ८०० वर्पा सू वरावर चली आ रही है। जिके रा कई उदाहरण म्हारे ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह सू उपस्चित किया जा सके हैं । पण निवध रे विस्तार रे भय सू खाली वारा प्रारम्भिक प्रवाह रे रूप मे ऊपर कई पक्तियां आ सकी है। १५ वी शताब्दी सू तीर्थंकरो