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जैन दर्शन में कर्म-सीमांला
-'प्रियदर्शी' मुनि सुरेश 'विशारद'
कर्म विपयक विस्तृत विवेचन जितना जैन दर्शन प्रस्तुत करता है उतना तो क्या परतु अश रूप मे भी अभिव्यक्त करने मे अन्य दार्शनिक सफल नहीं हुए हैं । हा, 'कर्म' शब्द का प्रयोग अवश्य सभी दर्शनो मे हुआ है । किन्तु कर्म के तलस्पर्शी ज्ञान विज्ञान मे अन्य दर्शनकार अनभिज्ञ से रहे हैं।
___ महाभारत में कहा है-ईश्वर की प्रेरणा से ही प्राणी स्वर्ग नरक में जाता है । यह अज्ञानी जीव अपने सुख-दुख उत्पन्न करने में असमर्थ है । १ "वैशेपिक दर्शन मे ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मानकर उसके स्वरूप का वर्णन किया है। इसी प्रकार योगदर्शन में भी जड और जग का विस्तार ईश्वर पर निर्भर करता है।
परन्तु जैन दर्शन ईश्वर को कर्म का प्रेरक नहीं मानता है । वयोकि-कर्मवाद का ऐसा ध्रुव मतव्य हे कि-जैसे जीव कर्म करने में स्वाधीन है, वैसे ही कर्म विपाक भोगने में भी । अर्थात् सुख और दुख का कर्ता जीव स्वय है न कि अन्य कोई शक्ति विशेष। उत्तमकर्मों की दृष्टि से आत्ममित्र रूप और दुखोपार्जन करने की दृष्टि से शत्र रूप मानी गई है।
‘क्रियते यत-तत् कर्म ।' अर्थात् जीवात्मा द्वारा शुभाशुभ क्रिया (कर्म) की जाती है—उसे कर्म कहते है । वुरे-मले कर्म जीवाजीव के सयोग से ही वनते हैं । अकेला जीव कर्म बन्ध नहीं करेगा और न अकेला अजीव (जड) भी । अत कहा गया है कि-जीव और अजीव दोनो कर्म के अधिकरण यानी आधार है।
कम परिणाम (भाव) की अपेक्षा से तीव-मद-ज्ञात-अज्ञात वीर्य और अधिकरण के भेदानुभेद से कर्मवन्ध मे विविध विशेषता पाई जाती है।
१ ईश्वर प्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा। अज्ञो जन्तुरनीशोयमात्मन सुख-दु खयो ।
-महाभारत अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्त ममित्त च, दुप्पट्ठिय सुपट्ठिओ ॥
-उ अ २० गा ३७ ३ अधिकरण जीवाजीवा
-तत्त्वार्थ अ६ । सू ७ ४ तीव्रमन्द ज्ञाताज्ञान भाव वीर्याधिकरण विशेषेभ्यस्तद्विशेष
-तत्त्वार्थ म ६ । सू ७