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चतुर्थ खण्ड धर्म, दर्शन एव सस्कृति हमारो आचार्य-परम्परा | २२६ सा० आप के ही गिप्य रत्न हैं । और हमारे चरित्रनायक आपके गुरु भ्राता व प्रवर्तक श्री हीरा लाल जी म० मा० व तपस्वी श्री लाभचन्द जी म० सा० आप के प्रशिप्य हैं।
आप के अक्षर अति सुन्दर आते थे। इस कारण आप की लेखन कला भी स्तुत्य थी। आप अपने अमूल्य समय मे कुछ न कुछ लिखा ही करते थे । चित्रकला मे भी आप निपुण थे। आज भी हस्तलिखित आप के अनेको पन्ने सत-मण्डली के पास मौजूद है। जो समय-समय पर काम मे लिया करते हैं । - आप कवि के रूप में भी समाज के सम्मुख आये थे। आप द्वारा रचित अनेक भजन दोह व लावणियां आज भी माधक जीह्वा पर ताजे हैं । आपकी रचना सरल सुवोध व भावप्रधान मानी जाती है। शब्दो की दुस्हता से परे है । कहीं-कहीं आपकी कविताओ मे अपने आप ही अनुप्राम अलकार इतना रोचक वन पडा है कि-गायको को अति आनन्द की अनुभूति होती है और पुन पुन गाने पर भी मन अघाता नहीं है। जैसा कि
"यह प्रजन फुर्वर को प्रगट सुनो पुण्याई,
महाराज, मात रुक्मीणि फा जाया जी ।
जान भोग छोड लिया योग रोग कर्मों का मिटाया जी ॥' मर्व गुण सम्पन्न प्रवरप्रतिभा के धनी आप को समझकर चतुर्विध सघ ने स० १९६० माघ शुक्ला १३ शनिवार की शुभ घडी मन्दमौर की पावन स्थली मे पूज्य श्री हुक्मी चन्द जी महाराज के सम्प्रदाय के आप को आचार्य बनाए गये । आचार्य पद पर आसीन होने पर "यथा नाम तथा गुण" के अनुमार चतुर्विध सघ-समाज मे चौमुखी तरक्की प्रगति होती रही और आप के अनुशासन की परिपालना विना दवाव के सर्वत्र-सश्रद्धा-भक्ति-प्रेम पूर्वक हुआ करती थी । अतएव आचार्य पद पर आप के विराजने से मकल सब को स्वाभिमान का भारी गर्व था।
आप के मर्व कार्य सतुलित हुआ करते थे । शास्त्रीय मर्यादा को आत्ममात करने मे सदैव आप कटिवद्ध रहते थे । महिमा सम्पन्न विमन्न व्यक्तित्व समाज के लिए ही नहीं, अपितु जन-जन के लिए मार्गदर्शक व प्रेरणादायी था । समता-रम मे रमण करना ही आप को अभीप्ट था। यही कारण था किविरोधी तत्त्व भी आपके प्रति पूर्ण पूज्य भाव रखते थे।
मालवा-मेवाड-मारवाड, पजाब व खानदेश आदि अनेक प्रातो मे आपने पर्यटन किया था। जहाँ भी आप चरण-सरोज घरते थे, वहाँ काफी धर्मोद्योत हुआ ही करता था। चाँदनी-चौक दिल्ली के भक्तगण आपके प्रति अटूट श्रद्धा-भक्ति रखते थे।
____ इस प्रकार स० २००२ चैत्र शुक्ला ३ के दिन व्यावर नगर मे आपका देहावसान हुआ और आपके पश्चात् सम्प्रदाय के कर्णधार के रूप मे पूज्य प्रवर श्री सहस्रमल जी महाराज सा० को चुने गये ।।
आचार्य प्रवर श्री सहनमलजी महाराज सा० ___ आप का जन्म स०-१६५२ टांडगढ (मेवाड) मे हुआ था। पीतलिया गोत्रिय ओसवाल परिवार के रन थे । अति लघुवय मे वैराग्य हुआ और तेरापथ सम्प्रदाय के आचार्य कालुराम जी के पास दीक्षित भी हो गये । माधु बनने के पश्चात् सिद्धान्तो की तह तक पहुँचे, जिज्ञामु बुद्धि के आप धनी थे ही और तेरापय की मूल मान्यताएं भी सामने आई ।'-"मरते हुए को वचाने में पाप, भूखे को रोटी कपडे देने मे पाप, अन्य की सेवा-शुश्रुपा करना पाप'' अर्थात्-दयादान के विपरीत मान्यताओ को सुनकर-समझकर आप ताज्जुव मे पड गये । मरे | यह क्या ? मारी दुनियां के धर्म-मत-पथो की मान्यता दयादान के