Book Title: Pratapmuni Abhinandan Granth
Author(s): Rameshmuni
Publisher: Kesar Kastur Swadhyaya Samiti

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Page 259
________________ चतुर्थ खण्ड धर्म, दर्शन एव सस्कृति हमारी आचार्य-परम्परा | २२७ आसाढ वदी १२ के दिन आप का जन्म हुआ था । अति लनुवय मे आप का लग्न हो चुका था। तथापि नीर-नीरज न्यायवत् विरक्त भाव में रहते थे । अन्तत स० १९४५ माघवदी ७ की मगल वेला मे दीक्षा स्वीकार करके भ० महावीर के पद चिन्हो पर चलने लगे। स्मरण शक्ति स्तुत्य थी। अतएव थोडे काल मे ही जैन आगमो का गहरा परिशीलन किया तथा पर्याप्त मात्रा मे अन्य ज्ञान का भी सपादन किया गया । चतुर्विध संघ को आगे बढाने मे आप का स्तुत्य योग रहा है । सरल व्याच्यान शैली से आकृष्ट होकर कई इतर जन समूह मद्य-मांस व पशुबलि का त्याग भी किया करते थे। आप के शासन काल में सत मण्डनी एव श्रावकमडली के बीच काफी उतार-चढाव के वादल मडराने रहे । फलस्वरूप सप्रदाय दो विभाग में विभक्त हो गई। आचार्य प्रवर विचरते हुए जेतारण पधारे । वहाँ स० १९७७ आपाढ शुक्ला ३ के दिन इस पार्थिव देह का परित्याग कर स्वर्गवामी हुए। आगमोदधि आचार्य श्री मन्नालाल जी म० सा० सम्वत् १९२६ मे पूज्य प्रपर का जन्म रतलाम में हुआ था । आप के पिता श्री का नाम अमरचन्द जी, मातेश्वरी का नाम नानी वाई बोहरा गोत्रीय ओसवाल थे। शैशव काल अति सुख साता मय वीता। पूज्य प्रवर श्री उदयनागर जी म० का पीयूप वर्षीय उपदेश सुनकर श्रेष्टी श्री अमरचन्द जी और सुपुत्र श्री मन्नालाल जी दोनो जन वैराग्य में प्लावित हो उठे। सं० १९३८ अपाढ शुक्ला ६ वी मगलवार को पूज्य प्रवर के कमनीय कर-कमलो द्वारा दीक्षित हुए और लोदवाले श्री रतन चन्द जी म० के नेश्राय मे आप दोनो को घोपित किये गये । दीक्षा के पश्चात् सुष्ठुरित्या अभ्यास करने मे लग गये । पूज्य श्री मन्त्रालाल जी म० की बुद्धि अति शुद्ध-विशुद्ध निर्मल थी। कहते हैं कि एक दिन मे लगभग पचाम गाथा अथवा श्लोक कठस्थ करके मुना दिया करते थे। विनय, अनुभव-नम्रता और अनुशासन का परिपालन आदि-२ गुणो से आप का जीवन आवाल वृद्ध सन्तो के लिए प्रिय था । एतदर्थ पू० श्री उदयसागर जी म० ने दिल खोलकर पात्र को शास्त्रो का अध्ययन करवाया, गूढातिगूढ शास्त्र कु जियो मे अवगत कराया और अपना अनुभव भी सिखाया गया। इस प्रकार शनै गर्न गाभीर्यता, समता, महिष्णुता, क्षमता आदि अनेकानेक गुणो के कारण आप का जीवन, चमकता, दमकता. दीपता हुआ समाज के सम्मुख आया । आचार्य पद योग्य गुणो से समवेत समझकर चतुर्विध संघ ने सम्बत् १९७५ वैशाख शुक्ला १० के दिन जम्मू, (काश्मीर) नगर मे चारित्र-चूडामणि पूज्य श्री हुक्मीचन्द जो म० सा० के सम्प्रदाय के "आचार्य" इस पद से आप (पू० श्री मन्नालाल जी म०) श्री को विभूपित क्यिा गया। तत्पश्चात् व्याख्यान वाचस्पति प० रत्न श्री देवीलाल जी म० प्रसिद्धवक्ता जैन-दिवाकर श्री चौथमल जी म० भावी आचार्य श्री खूबचन्द जी म० आदि अनेक सन्त शिरोमणि आप के स्वागत सेवा मे पहुंचे और पुन सर्व मुनि मण्डल का मालवा मे शुभागमन हुआ । अनेक स्थानो पर आपके यशस्वी चातुर्माम हुए । और जहाँ जहाँ आचार्य प्रवर पधारे, वहाँ-वहाँ आशातीत धर्मोन्नति व दान, शील, तप, भावाराधना हुआ ही करती थी। अनेक मुमुक्षु आपके वैराग्योत्पादक उपदेशो को श्रवणगत कर आप के चारु-चरण सरोज मे दीक्षित भी हुए हैं।

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