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२२६ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ घर पर ही माध्वोचित आचार-विचार पालते रहे । अन्तत खूब परीक्षा-जांच पडताल कर लेने के पश्चात् मात-पिता व न्याती-गोती सभी वर्ग ने दीक्षी की अनुमति प्रदान की।
महा मनोरथ-सिद्धि की उपलब्धि के पश्चात् पू० प्रवर श्री शिवलाल जी म० के आजानुगामी मुनि श्री हर्षचन्द जी म० के सान्निध्य में सवत् १८६८ चैत्र शुक्ला ११ गुरुवार की शुभ वेला में दीक्षित हुए।
दीक्षा व्रत स्वीकार करने के पश्चात् पूज्य श्री शिवलाल जी म० की सेवा में रहकर जैनमिद्धान्त का गहन अभ्यास किया । वुद्धि की तीक्ष्णता के कारण स्वल्प समय मे व्याख्यान-वाणी व पठनपाठन मे प्रलापनीय योग्यता प्राप्त कर ली गई। सदैव आप आत्म-भाव मे रमण किया करते थे । प्रमाद आलम्ब मे समय को खोना, आप को अप्रिय था । सरल एव स्पष्टवादिता के आप धनी थे अतएव सदैव आचार-विचार में सावधान रहा करते थे । व अन्य मन्त महन्तो को भी उसी प्रकार प्रेरित किया करते थे।
आप की विहार स्थली मुख्य रूपेण मालवा और राजस्थान ही थी। किन्तु भारत के सुदूर तक आप के सयमी जीवन की महक व्याप्त थी। आप के ओजस्वी भापणो से व ज्योर्तिमय जीवन के प्रभाव मे अनेक इतर जनो ने मद्य, मान व पशुवलि का जीवन पर्यन्त के लिये त्याग किया था और कई बडे-बडे राजा-महाराजा जागीरदार आप की विद्वत्ता से व चमकते-दमकते चेहरे से आकृष्ट होकर यदा-कदा दर्शनो के लिए व व्याख्यानामृत पान हेतु आया ही करते थे।
अन्य अनेक ग्राम-नगरो को प्रतिलाभ देते हुए आप शिग्य समुदाय महित रतलाम पधारे । पार्थिव देह की स्थिति दिनो-दिन दबती जा रही थी । बस द्र तगत्या मुख्य-मुख्य सत व श्रावको की सलाह लेकर पूज्य प्रवर ने अपनी पैनी मूझ-बूझ से भावी आचार्य श्री चौथमल जी म. सा० का नाम घोपित कर दिया। चतुर्विध संघ ने इस महान योजना का मुक्त कठो से स्वागत किया। आप के शासनकाल मे चतुर्विध सघ मे आशातीत जागृति आई । इस प्रकार सम्वत् १९५४ माघ शुक्ला १३ के दिन रतलाम मे पूज्य श्री उदयसागर जी म० सा० का स्वर्गवास हो गया।
पूज्य प्रवर श्री चौथमल जी म पूज्य प्रवर श्री उदयसागर जी म० के पश्चात सम्प्रदाय की सर्व व्यवस्था आप के वलिप्ट कधो पर आ खडी हुई । आप पाली मारवाड के रहने वाले एक सुसम्पन्न भोसवाल परिवार के रत्न थे। आप की दीक्षातिथि सम्बत् १६०६ चैत्र शुक्ला १२ रविवार और नाचार्य पदवी सम्वत् १९५४ मानी जाती है । पू० श्री उदयसागर जी म० की तरह आप भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र के महान् धनी और उन विहारी तपन्वी सत थे । यद्यपि शरीर मे यदा-कदा असाता का उदय हुआ ही करता था। तथापि तप-जप-म्वाध्याय-व्याख्यान मे रत रहा करते थे। अनेकानेक गुण रत्नो से अलकृत आपका जीवन अन्य भव्यो के लिये मार्ग-दर्शक था । आप की मौजूदगी में भी शासन की समुचित सुव्यवस्था थी और पारम्परिक सगठन स्नेह भाव पूर्ववत् ही था।
इस प्रकार केवल तीन वर्प और कुछ महीनों तक ही आप समाज को मार्ग-दर्शन देते रहे और सम्वत् १६५७ कार्तिक शुक्ला ६ वी के दिन आप श्री का रतलाम मे देहावसान हुआ।
पूज्य श्रीलाल जी म० सा० टोक निवासी श्रीमान् चुन्नीलालजी को धर्मपत्नी श्रीमती चाँदवाई की कुक्षी मे स० १९२६