Book Title: Pratapmuni Abhinandan Granth
Author(s): Rameshmuni
Publisher: Kesar Kastur Swadhyaya Samiti

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Page 241
________________ भगवान महावीर का अपरिग्रह-दर्शन -उपाध्याय श्रीअमरमुनि mmmmmmmmmm~~~~~~~~~~~~~~~~rmmmmmmmm wwww से मइम परिन्नाय मा य हु लाल पच्चासी -विवेकी साधक लार-थूक चाटने वाला न बने, अर्थात् परित्यक्त भोगो की पुन कामना -आचाराग १२।५ न करे। जे ममाइयमई जहाइ, से जहाइ ममाइय । से हु दिट्ठपहे मुणी, जस्स नत्थि ममाइय । जो ममत्व बुद्धि का परित्याग करता है, वही वस्तुत. ममत्व-परिग्रह का त्याग कर सकता है। वही मुनि वास्तव मे पथ (मोक्षमार्ग) का द्रष्टा है जो किसी भी प्रकार का ममत्व भाव नही रखता है। -आचाराग ११२६ भगवान् महावीर के चिंतन मे जितना महत्व अहिंसा को मिला, उतना ही अपरिग्रह को भी मिला । उन्होंने अपने प्रवचनो मे जहा-जहा आरम्भ-(हिंसा) का निपेध किया, वहा-वहा परिग्रह का भी निषेध किया है। चूंकि मुख्यरूपेण परिग्रह के लिए ही हिंसा की जाती है, अत अपरिग्रह अहिंसा की पूरक साधना है। परिग्रह क्या है ? प्रश्न खडा होता है, परिग्रह क्या है ? उत्तर आया होगा-धन-धान्य, वस्त्र-भवन, पुत्रपरिवार और अपना शरीर यह सव परिग्रह है। इस पर एक प्रश्न खडा हुआ होगा कि यदि ये ही परिग्रह है तो इनका सर्वथा त्यागकर कोई कसे जी सकता है ? जव शरीर भी परिग्रह है, तो कोई अशरीर वनकर जिए, क्या यह सभव है ? फिर तो अपरिग्रह का आचरण असभव है। असभव और अशक्य धर्म का उपदेश भी निरर्थक है । भगवान् महावीर ने हर प्रश्न का अनेकातदृष्टि से समाधान दिया है । परिग्रह की वात भी उन्होने अनेकात दृष्टि से निश्चित की और कहा-वस्तु, परिवार, और शरीर परिग्रह है भी और नही भी । मूलत वे परिग्रह नहीं हैं, क्योकि वे तो बाहर मे केवल वस्तु रूप हैं । परिग्रह एक वृत्ति है, जो प्राणी की अन्तरग चेतना की एक अशुद्ध स्थिति है, अत जव चेतना वाह्य वस्तुओ मे आसक्ति, मूर्छा, ममत्व (मेरापन) का आरोप करती है तभी वे परिग्रह होते हैं, अन्यथा नहीं। इसका अर्थ है-वस्तु मे परिग्रह नही, भावना मे ही परिग्रह है। ग्रह एक चीज है, परिग्रह दूसरी चीज है । ग्रह का अर्थ उचित आवश्यकता के लिए किसी वस्तु को उचित रूप में लेना एव उसका उचित रूप मे ही उपयोग करना। और परिग्रह का अर्थ है-उचित-अनुचित का विवेक किए विना २७

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