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२१८ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ आज के सकट काल मे जो सग्रह वृत्ति (Hoarding) और तद्जनित व्यावसायिक लाभ वृत्ति पनपी है, उममे मुक्त हम तव तक नही हो सकते जब तक कि अपरिग्रह दर्शन के इस पहल को आत्मसात् न कर लिया जाय।
__ व्यक्ति के प्रति भी ममता न हो। इसका दार्शनिक पहलू इतना ही है कि व्यक्ति अपने 'स्वजनो' तक ही न मोरे । परिवार के सदस्यो के हितो की ही रक्षा न करे वरन् उसका दृष्टिकोण समस्त मानवता के हित की ओर अग्रसर हो । आज प्रशासन और अन्य क्षेत्रो मे जो अनैतिकता व्यवहृत है उसके मूल मे 'अपनो के प्रति ममता का भाव ही विशेप रूप से प्रेरक कारण है। इसका अर्थ यह नही कि व्यक्ति पारिवारिक दायित्व ने मुक्त हो जाय । इसका ध्वनित अर्थ केवल इतना ही है कि व्यक्ति 'स्व' के दायरे से निकलकर 'पर' तक पहुचे । 'स्वार्थ के सकीर्ण क्षेत्र को लाघ कर 'परार्थ के विस्तृत क्षेत्र को अपनाये । सन्तो के जीवन की यही साधना है । महापुरुप इसी जीवनपद्धति पर आगे बढते हैं । क्या महावीर, क्या बुद्ध मभी इन व्यामोह से परे हटकर, आत्मजयी वने । जो जिस अनुपात में इस अनामक्त भाव को आत्मसात् कर सकता है वह उसी अनुपात मे लोक-सम्मान का अधिकारी होता है। आज के तथाकथित नेताओ के व्यक्तित्व का विश्लेपण इम कमौटी पर किया जा सकता है । नेताओ के सम्बन्ध में आज जो दृष्टि बदली है और उस शब्द के अर्थ का जो अपकर्ष हुआ है, सकोच हुआ है, उसके पीछे यही लोकदृष्टि रही है।
अपने प्रति भी ममता न हो यह अपरिग्रह दर्शन का चरम लक्ष्य है। श्रमण सस्कृति मे इसलिए शारीरिक कप्ट-सहन को एक ओर अधिक महत्त्व दिया है तो दूमरी ओर इस पार्थिव देह-विसर्जन के पूर्व 'सलेखणा व्रत' का विधान किया गया है । वैदिक संस्कृति मे जो समाधि अवस्था, या सतमत मे जो सहजावस्था है, वह इसी कोटि की है। इस अवस्था में व्यक्ति 'स्व' से आगे बढकर इतना अधिक सूक्ष्म हो जाता है कि वह कुछ भी नहीं रहता । यही योग साधना की चरम परिणति है।
सक्षेप में महावीर की इम विचारधारा का अर्थ यही है कि हम अपने जीवन को इतना सयमित और तपोमय बनाये कि दूसरो का लेशमात्र भी शोपण न हो, माथ ही साथ हम अपने में इतनी शक्ति, पुरुपार्थ और क्षमता अजित करलें कि दूसरा हमारा शोपण न कर सके ।
प्रश्न है ऐसे जीवन को से जीया जाय ? जीवन मे मील और शक्ति का यह सगम कैसे हो? इसके लिए महावीर ने 'जीवन-व्रत-साधना' का प्रारूप प्रस्तुत किया । साधक जीवन को दो वर्गों मे वाटते हुए उन्होंने बारह व्रत बतलाये । प्रथम वर्ग जो पूर्णतया इन व्रतो की साधना करता है, वह श्रमण है, मुनि है मन है, और दूसरा वर्ग जो अशतः इन व्रतो को अपनाता है, वह श्रावक है, गृहस्थ है, ससारी है।
इन बारह प्रतो की तीन श्रेणियां हैं । पाच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । अणुवन मे श्रावक न्यूल हिसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह का त्याग करता है। व्यक्ति तथा समाज के जीवनयापन के लिए वह आवश्यक सूक्ष्म हिसा का त्याग नहीं करता (जव कि श्रमण इसका भी त्याग करता है) पर उसे भी यथाशक्य सीमित करने का प्रयत्न करता है । इन व्रतो मे ममाजवादी समाज-रचना के सभी सावश्यक तत्व विद्यमान हैं।
प्रथम अणुरात में निरपराध प्राणी को मारना निपिद्ध है किन्तु अपरावी को दण्ड देने की छूट है। दूसरे अणुव्रत में धन, सम्पत्ति, परिवार आदि के विपय में दूसरे को धोखा देने के लिए असत्य बोलना निपिट्ट है। तीसरे व्रत मे व्यवहार-शुद्धि पर बल दिया गया है। व्यापार करते समय अच्छो वस्तु दिखाकर घटिया दे देना, दूध में पानी आदि मिला देना, झूठा नाप, तौल तथा राज-व्यवस्था के विरुद्ध आच