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वर्तमान युग में भगवान महावीर के विचारों की सार्थकता
डॉ० नरेन्द्र भानावत एम ए पी-एच. डी.
वढे मान भगवान महावीर विराट व्यक्तित्व के धनी थे । वे क्रांति के रूप मे उत्पन्न हुए थे। उनमे शक्ति, शील व सौन्दर्य का अद्भत प्रकाश था। उनकी दृष्टि वडी पैनी थी । यद्यपि वे राजकुमार थे। राजसी समस्त ऐश्वर्य उनके चरणो मे लोटता था तथापि पीडित मानवता और दलित शोषित जन-जीवन से उन्हे सहानुभूति थी। समाज में व्याप्त अर्थ-जन्य विषमता और मन मे उद्भूत काम जन्य वासनाओ के दुर्दमनीय नाग को अहिंसा, सयम और तप के गारूडी सस्पर्श से कील कर वे समता, सद्भाव और स्नेह की धारा अजम्न रूप से प्रवाहित करना चाहते थे। इस महान् उत्तरदायित्व को, जीवन के इस लोकसग्रही लक्ष्य को उन्होने पूर्ण निष्ठा और सजगता के साथ सम्पादित किया, इसमे कोई सन्देह नहीं ।
__महावीर का जीवन-दर्शन और उनका तत्त्वचिंतन इतना अधिक वैज्ञानिक और सार्वकालिक लगता है कि वह आज की हमारी जटिल समस्याओ के समाधान के लिए भी पर्याप्त है। आज की प्रमुख समस्या है सामाजिक अर्थजन्य विपमता को दूर करने को । इसके लिए मार्क्स ने वर्ग-सघर्ष को हल के रूप मे रखा । शोपक और शोषित के पारस्परिक अनवरत संघर्ष को अनिवार्य माना और जीवन की अन्तस् भाव-चेतना को नकारकर केवल भौतिक जडता को ही सृष्टि का आधार माना । इससे जो दुष्परिणाम हुआ वह हमारे सामने है । हमे गति तो मिल गई पर दिशा नही, शक्ति तो मिल गई पर विवेक नही, सामाजिक वैषम्य तो सतहो रूप से कम होता हुआ नजर आया पर व्यक्ति-व्यक्ति के मन की दूरी वढती गई। वैज्ञानिक आविष्कारो ने राष्ट्रो की दूरी तो कम की पर मानसिक दूरी और बढी । व्यक्ति के जीवन मे धार्मिकता-रहित नैतिकता और आचरण रहित विचारशीलता पनपने लगी। वर्तमान युग का यही सबसे बडा अन्तविरोध और सास्कृतिक सकट है। भगवान महावीर की विचारधारा को ठीक तरह से हृदयगम करने पर समाजवादी लक्ष्य की प्राप्ति भी सभाव्य है और वढते हुए इस मास्कृतिक सकट से मुक्ति भी।
महावीर ने अपने राजसी जीवन मे और उसके चारो ओर जो अनन्त वैभव की रगीनी थी, उससे यह अनुभव किया कि आवश्यकता से अधिक सग्रह करना पाप है, सामाजिक अपराध है, आत्मछलना है । आनन्द का रास्ता है अपनी इच्छाओ को कम करो, आवश्यकता से अधिक स ग्रह न करो। क्योकि हमारे पास जो अनावश्यक सग्रह है, उसकी उपयोगिता कही और है । कही ऐसा प्राणी वर्ग है जो उम सामग्री से वचित है, जो उमके अभाव मे सतप्त है, आकुल है । अत हमे उस अनावश्यक सामग्नी को सग्रहीत कर रखना उचित नहीं । यह अपने प्रति ही नहीं, समाज के प्रति छलना है, इस विचार को अपरिग्रह दर्शन कहा गया। इसका मूल मन्तव्य है-किसी के प्रति ममत्व-भाव न रखना । वस्तु के प्रति भी नही, व्यक्ति के प्रति मी नही, स्वय अपने प्रति भी नही । वस्तु के प्रति ममता न होने पर हम अनावश्यक सामग्री का तो सचय करेंगे ही नहीं, आवश्यक सामग्री को भी दूमरो के लिए विसर्जित करेंगे।
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