________________
चतुर्थ खण्ड धर्म, दर्शन एव सस्कृति विश्व को भगवान महावीर की देन | २०७
भी नही, और स्त्री चाहे कितनी भी सहिष्णु, सेवा-परायणा एव धर्ममय जीवन जीने वाली हो- उसे धर्म-साधना करने और शास्त्र ज्ञान प्राप्त करने का कोई अधिकार नही । यह मानव-सत्ता का अवमूल्यन था मानव शक्ति का अपमान था ।
भगवान महावीर ने सबसे पहले मानव सत्ता का पुनर्मूल्याकन स्थापित किया। उन्होंने कहाईश्वर नाम का ऐसा कोई व्यक्ति नही है जो मनुष्य पर शासन करता हो, मनुप्य ईश्वर का दास या सेवक नही है, किन्तु अपने आपका स्वामी है । उन्होंने कहा__"अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य ।
---उत्तराध्ययन सूत्र अपने सुख एवं दुख का करने वाला यह आत्मा म्वय है । आत्मा का अपना स्वतन्त्र मूल्य है, वह किसी के हाथ विका हुआ नहीं है । वह चाहे तो अपने लिए नरक का कूट शाल्मली वृक्ष (भयकर काटेदार विप-वृक्ष) भी उगा सकता है, अथवा स्वर्ग का नन्दनवन और अशोकवृक्ष भी । स्वर्ग नरक आत्मा के हाथ मे है-आत्मा अपना स्वामी स्वय है । प्रत्येक आत्मा मे परमात्मा बनने की शक्ति है।
आत्म-मत्ता की स्वतत्रता का यह उद्घोप–मानवीय मूल्यो की नवस्थापना थी, मानव सत्ता की महत्ता का स्पष्ट स्वीकार था। इस आघोप ने मनुष्य को सत्कर्म के लिए, सत्पुरुषार्थ के लिए प्रेरित किया। ईश्वरीय दासता से मुक्त किया। और वन्धनो से मुक्त होने की चावी उसी के हाथ मे सौंप दी गईवधप्प मोक्खो अज्झत्येव
-आचाराग सूत्र ११२ वन्धन और मोक्ष आत्मा के अपने भीतर है।
समानता का सिद्धान्त मानवसत्ता की महत्ता स्थापित होने पर यह सिद्वान्त भी स्वय पुष्ट हो गया कि मानव चाहे पुरुप हो या स्त्री, ब्राह्मण हो या शूद्र-धर्म की दृष्टि से, मानवीय दृष्टि से उसमे कोई अन्तर नही है। जाति और जन्म से अपनी आभिजात्यता या श्रेष्ठता मानना मात्र एक दभ है । जाति से कोई भी विशिष्ट या हीन नहीन दोसई जाइ विसेस फोई
- उत्तराध्ययन सूत्र जाति की कोई विशिष्टता नही है।
उन्होने कहा-ब्राह्मण कौन ? कुल विशेप मे पैदा होने वाला ब्राह्मण नही, किन्तु बभचेरेण वमणो (-उत्तराध्ययन) ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला ब्राह्मण होता है । यह जातिवाद पर गहरी चोट थी। जाति को जन्म के स्थान पर कर्म से मान कर भगवान महावीर ने पुरानी जड मान्यताओ को तोडा।
कम्मुणा वमणो होई, कम्मुणा होई खत्तिो ।
वइसो फम्मुणा होइ सुद्दो हवई कम्मुणा ॥ कर्म-समानता के इस सिद्धान्त से आभिजात्यता का झूठा दम निरस्त हो गया और मानवमानव के बीच समानता की भावना, कर्म श्रेष्ठता का सिद्धान्त स्थापित हुआ।
धर्म साधना के क्षेत्र मे भगवान महावीर ने नारी को भी उतना ही अधिकार दिया जितना पुरुप को। यह तो धार्मिकता का, आत्मज्ञान का उपहास था कि एक साधक अपने को आत्मद्रष्टा मानते