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चतुर्थ खण्ड धर्म, दर्शन एव संस्कृति भगवान महावीर का अपरिग्रह दर्शन | २११ स्वामित्व विसर्जन की यह सात्विक प्रेरणा थी, जो समाज मे सपत्ति के आधार पर फैली अनर्गल विपमताओ का प्रतिकार करने में सफल सिद्ध हुई। मनुष्य जव आवश्यकता से अधिक सपत्ति व वस्तु के संग्रह पर से अपना अधिकार हटा लेता है, तो वह समाज और राष्ट्र के लिए उन्मुक्त हो जाती है, इस प्रकार अपने आप ही एक सहज समाजवादी अन्तर् प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है।
__भोगोपभोग एव विशा-परिमाण मानव सुखाभिलाषी प्राणी है । वह अपने सुख के लिए नाना प्रकार के भोगोपभोगो की परिकल्पना के माया जाल मे उलझा रहता है। यह भोगवुद्धि ही अनर्थ की जड है। इसके लिए ही मानव अर्थ सग्रह के पीछे पागल की तरह दौड रहा है । जव तक भोगवुद्धि पर अकुश नही लगेगा, तबतक परिग्रह-बुद्वि से मुक्ति नही मिलेगी।
यह ठीक है कि मानव जीवन भोगोपभोग से सर्वथा मुक्त नही हो सकता। शरीर है, उमकी कुछ अपेक्षाएं । उन्हें सर्वथा कैसे ठुकराया जा सकता है । अत महावीर आवश्यक भोगोपभोग से नही, अपितु अमर्यादित - भोगोपभोग से मानव की मुक्ति चाहते थे।
उन्होंने इसके लिए भोग को सर्वथा त्याग का व्रत न बताकर 'भोगोपभोगपरिमाण' का व्रत बताया है।
भोग परिग्रह का मूल है । ज्यो ही भोग यथोचित आवश्यकता की सीमा मे आवद्ध होता है, परिग्रह भी अपने आप सीमित हो जाता है । इस प्रकार महावीर द्वारा उपदिष्ट भोगोपभोगपरिमाण' व्रत मे से अपरिग्रह स्वत फलित हो जाता है।
महावीर ने अपरिग्रह के लिए दिशा परिमाण और देशावकासिक व्रत भी निश्चित किए थे। इन व्रतो का उद्देश्य भी आमपास के देशो एव प्रदेशो पर होनेवाले अनुचित व्यापारिक, राजकीय एव अन्य शोपण प्रधान आक्रमणो से मानव समाज को मुक्त करना था । दूसरे देशो की सीमाओ, अपेक्षाओ एव स्थिनियो का योग्य विवेक रखे विना भोग-वासना पूर्ति के चक्र मे इधर उधर अनियश्रित भाग-दौड करना महावीर के साधना क्षेत्र मे निपिद्ध था । आज के शोपणमुक्त समाज की स्थापना के विश्व मगल उद्घोप मे, इस प्रकार महावीर का चिन्तन-स्वर पहले से ही मुखरित होता आ रहा है।
परिग्रह का परिष्कार दान पहले के सचित परिग्रह की चिकित्सा उसका उचित वितरण है। प्राप्त साधनो का जनहित मे विनियोग दान है, जो भारत की विश्व मानव को एक बहुत बडी देन है, किन्तु स्वामित्व विसर्जन की उक्त दान-प्रक्रिया में कुछ विकृतिया आ गई थी, अत महावीर ने चालू दान प्रणाली मे भी मशोधन प्रस्तुत किया। महावीर ने देखा लोग दान तो करते हैं, किन्तु दान के साथ उनके मन मे आसक्ति एव महकार की भावनाएँ भी पनपती है । वे दान का प्रतिफल चाहते हैं, यश, कीर्ति, वडप्पन, स्वर्ग और देवताओ की प्रमन्नता।
आदमी दान तो देता था, पर वह याचक की विवशता या गरीवी के साथ प्रतिष्ठा और स्वर्ग का सौदा भी कर लेना चाहता था। इस प्रकार का दान समाज मे गरीबी को बढावा देता था दाताओ के अहकार को प्रोत्साहित करता था । महावीर ने इस गलत दान-भावना का परिष्कार किया। उन्होने कहा--किमी को कुछ देना मात्र ही दान-धर्म नहीं हैं, अपितु निष्कामवुद्धि से', जनहित मे १-मुहादाई मुहाजीवी, दोवि,गच्छति सुग्गइ । —दशवकालिक