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२१२ / मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य मविभाग करना, सहोदर वन्धु के भाव से उचित हिस्सा देना, दान-धर्म है। दाता बिना किसी प्रकार के अहकार व भौतिक प्रलोभन से ग्रस्त हुए, महज सहयोग की पवित्र बुद्धि से दान करे-वही दान वास्तव मे दान है।
___ इमीलिए भगवान महावीर दान को सविभाग कहते थे। सविभाग–अर्थात् सम्यक्-उचित विभाजन-बंटवारा और इसके लिए भगवान् का गुरु गम्भीर घोप था कि- सविमागी को ही मोक्ष है, असविभागी को नही-'असविमागी न ह तस्स मोक्खो।'
वैचारिक अपरिग्रह भगवान् महावीर ने परिग्रह के मूल मानव मन की बहुत गहराई मे देखे । उनकी दृष्टि मे मानव-मन की वैचारिक अहता एव आसक्ति की हर प्रतिवद्धता परिग्रह है। जातीय श्रेष्ठता, भापागत पवित्रता, स्त्री-पुरुपो का शरीराधित अच्छा बुरापन, परम्पराओ का दुराग्रह आदि समग्र वैचारिक आग्रहो, मान्यताओ एव प्रतिवद्धताओ को महावीर ने आन्तरिक परिग्रह वताया और उससे मुक्त होने की प्रेरणा दी । महावीर ने स्पष्ट कहा कि विश्व की मानव जाति एक है । उसमे राष्ट्र, समाज एव जातिगत उच्चता-नीचता जैमी कोई चीज नहीं । कोई भी भापा शाश्वत एव पवित्र नहीं है। स्त्री और पुरुप आत्मदृष्टि से एक है, कोई ऊँचा या नीचा नही है । इसी तरह के अन्य मव सामाजिक तथा माप्रदायिक आदि भेद विकल्पो को महावीर ने औपाधिक वताया, स्वाभाविक नही ।।
इस प्रकार भगवान् महावीर ने मानव-चेतना को वैचारिक परिग्रह से भी मुक्त कर उसे विशुद्ध अपरिग्रह भाव पर प्रतिष्ठित किया।
भगवान् महावीर के अपरिग्रहवादी चिन्तन की पाँच फलश्रुतिया आज हमारे समक्ष हैं -- १-इच्छाओ का नियमन २-समाजोपयोगी साधनो के स्वामित्व का विसर्जन । ३-शोपणमुक्त समाज की स्थापना। ४-निष्कामबुद्धि से अपने साधनो का जनहित मे सविभाग दान । ५-आध्यात्मिक-शुद्धि।
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