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१५२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ हो, वही पर मेधावी मानव को खोज करनी चाहिए अन्यथा मारा किया-कराया परिश्रम वेकार व "खोदा पहाड निकली चूहिया' वाली कहावत चरितार्थ होगी। अतएव मही मित्र के विपय मे आगम पुराण कहते है - "धर्मो मित्र मृतस्य च ।"
मानव मात्र का ही क्यो, प्राणि मात्र का सच्चा सही मित्र अढाई अक्षर वाला वह "धर्म" है। जिनके विषय में सर्व ग्रथ-पथ एव मत एक स्वर से गुणगान गीत गाते हैं--
जरा मरण वेगेण वुज्झमाणाण पाणिण ।
धम्मो दीवो पइट्ठा य गई सरणमुत्तम । हे मुमुक्षु । जन्म, जरा, मृत्यु रूपी जल के प्रवाह मे डूबते हुए प्राणियो को मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला धर्म ही निश्चल आधार भूत स्थान और उत्तम शरण तप एक टापू के समान है। अतएव जो नर-नारी धर्म की हर तरह से रक्षा करते हैं वे अपने अमूल्य जीवन की रक्षा करते हैं और जो धर्म को फलाते-वढाते है नि सदेह वे अपने जीवन को ठोस मजबूत एव परिपुष्ट कर रहे हैं।
भौतिक विज्ञान की चकाचौंध मे उन्मत्त वना हुआ आज का मानव समाज जिसमे भी अधिक रूप से विद्यार्थी समाज सचमुच ही आर्यसस्कृति व सभ्यता के विपरीत चरण धर रहा है। तभी तो अनुशासन हीनता के जहाँ-तहाँ दिग्दर्शन हो रहे हैं । ये सव चलचित्र अधर्म की निशानियाँ व कुविद्या का प्रभाव ही माना जायेगा ।
____ अहिंसा धर्म के पुजारी, आज हिंसा धर्म के एजेंट बनते जा रहे हैं । जहा तक धर्ममित्र की अपेक्षा के वदले उपेक्षा रहेगी, वहाँ तक मानव समाज को दुर्भिक्ष से सुरक्षित रहना कठिन रहेगा, स्पष्ट भापा मे कहे तो मानव के पापमय कुकृत्यो ने ही आज पशु-पक्षी आदि सभी को तग कर रखा है। "ले डूवता है एक पापी नाव को मझधार मे" यह कहावत आज चरितार्थ हो रही है। तभी तो कुदरत अपना प्रकोप बता रही है।
___ यदि राष्ट्र व समाज का वास्तविक विकास करना है तो प्रत्येक भारतीय को धर्म रूपी सुहृदय की शरण मे जाना ही पडे गा तभी सम्भव है कि मानव समाज की रिक्त गोद अक्षुन्न, अखण्ड, अमिट सुख-समृद्धि से भर उठेगी, वस वही दिन सतयुग का प्रथम दिन माना जायगा।
धर्मेण हन्यते व्याधिः धर्मेण हन्यते ग्रह । धर्मेण हन्यते शत्रु. यतो धर्मस्ततो जय ॥
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