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आचार और विचार-पक्ष
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शुभ और अशुभ प्रवृत्तिशुभाशुभ मानसिक प्रति विशेष को दागनिक जगत ने पुष्य और पाग तत्त्य कहार विस्तृत मीमामा प्रस्तुत की है । दोनो तत्त्व देहधारी को अच्छी या बुगे मनोवृत्ति पर फनते-फनते है। स्वभाव की दृष्टि से तत्त्वो में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। शुभ प्रवृत्ति करने समर मनुष्य को अपग्य कष्टानुभव होता है। किन्तु ऐहिक सुख-सुविधा में कर्मा का जीवनाद्यान धीरे-धीरे नि मदह मर जाता है । यदाकदा धर्म का द्वार भी हाथ लग जाता है ।
__ जवकि अविवेक एव अनानतापूर्वक आचरित प्रवृत्तियां कर्ता को जरित कर जम्जोर देती है। प्रारभिक तौर पर चद क्षणो के लिये भले वह अपनी थोबी सफलना या ढोल पीटा करें परन्तु पापमय तो परते सुनने पर सचमुच ही उसको आँसू बहाने ही पड़ते हैं । मास्टीय उद्याप यही मत कर रहा है । "पड ति नरए घोरे, जे नरा पावकारिणो।"
परिश्रम भाग्य की कु जीमम्यक् परिश्रम मानव के लिए नहीं, अपितु प्रत्येक जीव-जन्तु के लिए गफलता की मही दिशा मानी गई है। क्योकि-परिश्रम के बलबूते पर ही महा मनस्बियो ने अपने मन्तंगत-कदग मे स्थित चिर अभीष्ट माध्य को पाया है । जीवन अभ्युदर के शिखर पर पहुंचने मे मम्यक् परिश्रम की पूर्ण सहायता रही है । इसलिए कहा है -"उद्यमेन हि सिध्यन्ति ।"
मफल परिश्रमिक के तौर पर हस्तगत हुई महा मूत्यवान उम उपलब्धि की हर तरह से सुरक्षा करना, करवाना उम कर्ता का परमोपरि कर्तव्य माना है । यदि दुर्लभ-दुप्प्राप्य उन निधि-सिद्वि को वह प्रमाद वश व्यर्थ ही खो दे अथवा अज्ञान असावधानी के कारण चन्द टुकडो के बदले बेच दें यह बहुत वडी मूर्खता आकी गई है।
जैसा सग वैसा रग - जीवन का सुधार व बिगाड मानव के हाथो मे रहा है । मानव चाहे तो कुष्ट ही क्षणो मे जीवन का अध पतन एव सुन्दरतम निर्माण भी कर मकता है । सुनिर्माण के लिये मज्जन नगति, सुमाहित्य पठन एव सुशिक्षा आदि आवश्यक कारण माने हैं । फलस्वल्य जीवन सुगुण सौरभ से ओत-प्रोत हो जाता है और अन्तत देहधारी के लिए वह प्रेरणा प्रदीप के समान बन जाता है।
कुमगति कुनाहित्य शिक्षा का अभ्यास एवं अनुशासन की कमी के कारण जीवन का विगाड अवश्य माना गया है। जिसमे भी दुर्जन-विचार धारा नर-नारी पर शीघ्र प्रभाव जमा लेती है। यहाँ तक कि ---जीवन को नष्ट व भिखारी एव व्यसनी वनाकर ही दम लेती है। इसलिए कहा है- 'दुर्जनो परिहर्तव्यो, विद्ययालकृतोऽपि सन् ।"