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१९४ । मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य सूख जाने के वाद स्वार्थी म टोली प्रगाढ अनुराग को ठोकर मारकर अन्यत्र विहार कर जाती है। उसी प्रकार एक नाता (सम्वन्ध) हम जैसा होता है । जहाँ तक वैभव का अथाह मागर लहलहाता है, वहाँ तक वे नाती-गोती हम पक्षी की तरह आम-पास मंडराते हैं, गुनछरे-रसगुल्ले उडाते है और वैभव-बाटिका उजडी कि वे मम्बन्धी उसने मुंह मोड लेते हैं। ऐसे म्वार्थी सम्बन्धियो के लिये निम्न शब्द युक्तियुक्त हैं- "काम पड़ियाँ जो लेवे टाला, उसी मगा का मुटा काला।"
कमल सदृश जो सगे होते है वे वैभव के मदभाव में व अभाव मे माय छोडकर अन्यत्र भागने नहीं है। बल्कि उभरी हुई उस परिस्थिति का डटकर व कन्धे से कन्धा मिलाकर मामना करते हैं। सफलता न मिलने पर मित्र के माथ-माथ निज प्राणो की भी आहुति दे डालते हैं। ऐमे सगो (मित्रो) के लिए कहा है-"काम पडियां जो आवे आडा, उसी सगा का करिये लाडा।"
मुनि और मणि सभी पथ एक स्वर से कहते है कि पारसमणि के मग-स्पर्श से लोहा स्वर्ण की पर्याय मे परिणित हा जाता है। हो सकता है यह प्रचलित वान बिल्कुल सही भी हो, किंतु यह कोई खास विशेषता नही मानी जाती है। क्योकि-लोहा पहले भी जड और स्वर्ण वनने के बाद भी जड ही रहा । लेकिन पारसमणि उमे पारन नहीं बना सकी।
भूले-भटके को मही मार्ग दर्शक, पापी जीवन को पावन, पूजनीक व आत्मा से परमात्मा पद तक पहुंचाने का सर्व श्रेय सत (मुनि) जीवन को है । जिनकी निर्मल-विशुद्ध उपदेण धारा ने समय-समय पर उन राहगीरो को चरम परम माध्य तक पहुंचाया है । कहा भी है -
पारसमणि अरु सत मे मोटो आतरो जान । वह लोह को कचन करे वह करे आप समान ।।
श्रद्धा का सम्बल सयमी जीवन का पतन दर्शन मोहनीय कर्मोदय से माना है। जिस प्रकार धवल-विमल दूध के अस्तित्व को मटियामेट करने में खार-नमक का एक नन्हा-सा कण पर्याप्त माना गया है। तद्वत् सयनी जीवन में अग्रद्धाल्पी लवण का जव मित्रण हुआ कि-वर्षों की माधी गई साधना रूपी सुधा कुछ ही क्षणो मे नष्ट हो जाती है और वह साधक न मालूम किम गनि के गर्त मे जा गिरता है। कहा है-अश्रद्धा हलाहलविषम् ।" अतएव आत्मयोगी सावको को साधना के प्रति सर्वथा नि शकित-निकाक्षित रहना चाहिए।
श्रद्धा आध्यात्मिक जीवन की प्रशस्त भूमिका मानी गई है। जब साधक स्पी कृपक स्वस्थमाघना का वीज उस मुलायम भूमि मे उचित मान पर वपन करता है तव धर्म रूपी कल्पवृक्ष जो सम्यज्ञान, दर्शन, चारित्रल्पी शाखा-विशाखाओ से क्षमा, मार्दव, मुक्ति, तप, सयम, सत्य शौच अकिंचनत्व ब्रह्मचर्य आदि विविध फूल मकरद से और मोक्षरूपी मधुफल मे उस सावक का मनोरम जीवनोद्यान नदा-मदा के लिए धन्य हो उठता है। इसलिए कहा है ---"श्रद्धामृत सदा पेय भवक्लेश विनाशाय।"
जिसने दिया, उसने लिया अभी अर्य युग का वोलवाला है, ऐसे तो प्रत्येक युग मे अर्थ की महती आवश्यकता रही है। अन्तर इतना ही रहा कि-उन युग के नर-नारी अर्थ (धन) को केवल साधन मात्र मानकर चलते थे