Book Title: Pratapmuni Abhinandan Granth
Author(s): Rameshmuni
Publisher: Kesar Kastur Swadhyaya Samiti

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Page 223
________________ तृतीय खण्ड ' प्रवचन पखुडिया आचार और विचार-पक्ष ] १६३ भोगी और योगी पार्थिव देह, इन्द्रिय व प्राण साधक जीवन के लिये परम सहयोगी रहे है। अत इन तत्वो की -सुरक्षा के लिये खान-पान, सुख-सुविधा आशिक रूप में जरूरी है। किन्तु तत् सम्बन्धी विपय-वासना मे ध्येय को विसरा देना साधु स्वभाव नही, पशु स्वभाव माना गया है । ऐसे भोगी भक्तो की दशा वृक्ष के टूट जाने पर ऊपर बैठे हुए उस बन्दर जैसी होती है जो विचारा रसातल की खाड मे जा गिरता है । आसक्त नर-नारी भी दुर्गति की ओर ही वढते है । कहा भी है-भोगी भमई ससारे ।' जो कचन-कामिनी सम्मुख आने पर भी भोग्य न मानकर त्याज्य मानता है उस मुमुक्षु को सँवर-सुधा का मधुकर व उस पक्षी की तरह प्रशस्त अभिव्यक्त किया है -जो वृक्ष के नष्ट हो जाने पर भी वह पक्षी नीचे नही गिरता, अपितु निर्ममत्व होकर अनन्त आकाश की ओर उडाने भर लेता है। ऐसे मजुल जीवन को त्यागी-वैरागी कहा है । जो भोग की कटीली अटवी मे गुमराह न होकर साधना के विशद मार्ग मे अनासक्ति रूप प्राणवायु (ऑक्सीजन) का सवल लेकर आगे बढता है कहा भी हैअभोगी नोव लिप्पई। कृपणवृत्ति और दानवत्ति 'कृपणता' मानव का स्वभाव नही, अपितु ममत्वपूर्ण एक वृत्ति है। इसके वशवर्ती बना हुआ नर-नारी न वढिया खाता और न खिलाने मे खुश होता है। वह उस खड्डे के मानिंद है जहा दवादव सग्रहित जलराशि धीरे-धीरे सड-गल कर मलीन बन जाती है । वस्तुत सग्रहकर्ता व सग्रहित वस्तु दोनो अपने आदर्श अस्तित्व को गुमा बैठते हैं और दुनियां की दृष्टि मे दोनो सदा-सदा के लिये मर मिटते है । ___ 'दान क्रिया' भी एक वृत्ति है। इस वृत्ति का धारक खुद भले न खाता हो, किन्तु अन्य को खिलाने मे सदैव तत्पर रहता है । 'शत हस्त समाहर, सहल हस्तसकिर ।' अर्थात् वह सैकडो हाथो से वटोरना, संग्रह करना जानता है तो हजारो हाथो से समाज, सघ, राष्ट्र को देना भी जानता है, अत दानी को वादलो की उपमा से उपमित किया गया है। अरिहंतं शरण रसातल मे डूबते हुए पामर प्राणियो के लिये धन-धरती-धान्य व तात-मात आदि स्वजन, परिजन कोई भी सक्षम शरण दाता नही है । चूकि जड वस्तु नश्वर व क्षण भगुर धर्मवाली है । जो पल-पल मे परिवर्तनशील रही है वह देहधारी के शरण की सदैव अपेक्षा रखती है। अत उनमे वह देहधारी कहाँ जो देहधारी को निर्भय बना सके ? अव रहा सवाल तात-मात आदि का-ये कुछ काल के लिये शरण दाता है। किन्तु आक्रामक काल के समक्ष शक्तिहीन वनकर हाथ मल-मल के रह जाते हैं। आधि-व्याधि-उपाधि त्रय तापो से मुक्त कराने मे व निर्भयता-अमरता के प्रदाता अग्हित प्रभु की शरण है । जो भवोदधि मे गोते खानेवालो के लिए महान् द्वीप के समान आश्रय-भूत है। क्रूर काल को परास्त करने मे राम-वाण औपधि व मृत्युञ्जय जडी-बूटी है। यथा-'सर्वापदामतकर निरन्त सर्वोदय तीर्थमिदम तवैव ।' अर्थात्-प्रभु आपका यह तीर्थ सर्वोदय तीर्य है जिसमे अनन्त आत्माओ के सर्वोदय का हित चिंतन रूप पवित्र पीयूष पूरित है। मित्र के प्रकार साफ-स्वच्छ जलराशि से पूरित सरोवर के पास हस पक्तियाँ मडराया करती है । किंतु जलकण

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