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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया आचार और विचार-पक्ष | १६१ मात-पिता, गुरु की शुभ वाणी, विना विचार करिये शुभजाणी ॥ किन्तु ऐसा होता कम ही है । इस कारण मानव का जीवन राह वीच मे भटक जाता है । अन्ततोगत्वा जीवन का बहुत वडा अहितकर सदा-सदा के लिए अस्त से हो जाते हैं ।
साधक और सैनिक साधक एव सुभट, दोनो मघर्पजीवी रहे है । कार्य क्षेत्र दोना का भले विभिन्नता को लिए हुए क्यो न हो, तथानि तुलनात्मक दृष्टिकोण से दोनो मे काफी समानता पाई जाती है। सुभट अपने दृष्टिकोण में प्रतिद्वन्द्वी दल को परास्त करने मे शस्त्रास्त्रो से लेश व आठो पहर सावधान चौकन्ना रहता है । वस्तुत रणक्षेत्र मे शत्रुदल के छक्के छुडाने मे सफल भी हो जाता है क्योकि शत्र -उपकरणो से लैस जो रहा ।
सत भी राग-द्वप, मोह-माया, रूप शत्रु ओ पर विजय पाने के लिये सदैव सघर्परत रहता हुआ सावधान रहता है । यद्यपि सुभट की भांति सत के पास तलवार पिस्तौल-वम आदि शस्त्र नही होते हैं । तथापि मुनि को अजेय शस्त्रधारी माना है । यथा -
जप शस्त्र तप शस्त्र शस्त्र इन्द्रियनिग्रह ।
सर्वभूत दया शस्त्र पर शस्त्र क्षमा भवेत् ॥ __ अर्थात्-जिनके वलबूते पर सत दुर्जय मोह योद्धा को परास्त कर चिरस्थायी विजय पाता है वे शास्त्र ये ही है।
जैसा वीज वैसा फल निष्ठा एव विश्वास पूर्वक कृपक एक बीज को प्रकृति की कमनीय-रमणीय घवल-धरा पर विखेर देता है । ठीक समय पर प्रकृति स्वीकृत उस दाने को अपने उदर मे जमा कर रखती नही है, अपितु उदारता पूर्वक कई गुणा ज्यादा बनाकर किसान की खाली गोद को केवल धान्य से ही नही, मोद से भी भर देती है । अपरिवर्तित प्रकृति का यह नियम सर्व जनता को विदित है।
देहधारी मानव को भी किसान की उपमा से उपमित किया जा सकता है। मानव भी मृत्युलोक की पवित्र भूमि पर विस्तृत पैमाने पर सुकृत की खेती उपार्जन करता है। फलस्वरूप भविष्य मे विविध सुत्रानुभूतियो की उपलब्धि होती है । इसलिए कहा है। "करणी का फल जानना, कबहु न निष्फल जाय" । अर्थात्-कृत-सुकर्म कदापि निष्फल नही जाते हैं । क्योकि - सुकृत का वीज न कभी सुलता, गलता एव न कभी बिगडता है । भले कर्ता किसी भी वेश-भूपा मे क्यो न हो, वह उसे ढूँढ लेता है और कर्ता को मालोमाल करके ही विश्राम लेता है । इसलिए कहा है-सुचिण्णा कम्मा, सुचिण्णा फला हवति" अर्थात् अच्छे कर्म के अच्छे फल होते हैं ।
शब्दो का चमत्कार तत्काल शब्दो मे चमत्कार परिलक्षित होता है । मधुर शब्दावली के प्रभाव मे दुश्मन एव इतर जीव जन्तु वश मे होते देर नही करते है । अतएव कहा है-"अमत्रमक्षरो नास्ति' अर्थात् वर्णमाला का एक ही अक्षर मत्र रहित नहीं है। अक्षरो मे अपरिमित शक्ति का भण्डार निहित है, और उटपटाग तरीको से अक्षरों का प्रयोग करने पर वातो की वात मे महाभारत भी छिड जाता एव विपाक्त वातावरण बन जाता है।