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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया आचार और विचार-पक्ष | १८६
विभाव और स्वभाव मोहानन्दी जब आत्मसाधना को हेय मानकर भोग-परिभोग मे मकडी की भांति उलझ जाता है । तव द्रव्य चेतना-जागरण उसका प्रक्रिया करता हुआ अवश्य दिखाइ देता है। तथापि महा-मनस्वियो की निर्मल दृष्टि मे वह जागरण जीवन का मगल प्रभात नहीं माना है । अपितु विभाव (सुप्त) अवस्था मानी गई है।
उन्हीं माधनो को सत-जीवन विपवत् मानना है । इसलिए कहा है-"तस्या जागति सयमी" अर्थात् विलासिता की चकाचौंध से सदैव सत-जीवन सावधान रहता है। व्यावहारिक दृष्टि में भले वह शका-शील स्थान पर बैठा है अथवा वह सो रहा या खा पी रहा है । तथापि उसकी अन्तरात्मा आत्मभाव में जागृत व हिताहित के विवेक से ओत-प्रोत बन चुकी है। ऐसी प्रबुद्ध आत्माओ का आन्त्रव (पाप) स्थान पर भी मकना हितकारी माना है।
अन्तर्जीवन का थर्मामीटर-- भावना भावना मानव व पशु-पक्षी के अन्तर्जीवन का एक प्रतिबिम्ब है या भावना एक पकार का जीवन सम्वन्धित नापदण्ट (थर्मामीटर) है जो समय-समय पर मानव-मन कन्दरा मे उभरी हुई वृद्धि हानि का स्पष्टत हमे नान कराता है। जैसा कि -"भावना भवनाशिनी" और "भावना भवद्धिनी।" अर्थात्-~-अन्तर्मुहूर्त के अन्तर्गत यह जीवात्मा कर्म विजेता बन जाता है और उतने काल मे नष्ट होकर मातवी नरक का मेहमान भी । इम दुहरी स्थिति मे शुभाशुभ भावना ही कार्य करती है ।
भावना अर्थात् एक प्रकार के उर्वरा मानस-स्थली की उद्गार, विचार व लेश्या । मज्ञी जीवो मे भावना का सम्बन्ध निकटतम रहा है । वे उद्गार शुभाशुभ और शुद्ध होते हैं । जिसमे केवल आत्म चितन हो, वह शुद्ध ठेट-पेट का गुम और केवल इन्द्रिय सम्बन्धित मलिन चितन हो वह एकान्त अशुभ चितन माना गया है । अतएव विचारे जो मन पर्याप्ति विहीन है, जैसे--कृमि-पिपीलिका व भ्रमर आदि मर्वोत्तम भावना मे हीन रहे हैं । किन्तु मानव व मनी पचेन्द्रिय प्राणी भावना के वल-बूते पर अपने भाग्य उन्मेप को तेजम्ची यशस्वी बना सकते हैं।
क्षुद्र और गम्भीर जीवन जीवन का एक प्रकार-जो क्षुद्र नदी की तरह जीता है । स्वल्प वैभव पाकर उन्मत्त व फूल जाता है । यदा-कदा मर्यादा को नोड भी डालता है व बुरी-भली कमी भी वात को पचा नहीं पाता, किंतु तिल का ताड बनाकर वातावरण को विपाक्त अवश्य बना देता है । ऐसा निकृष्ट जीवन समाज वाटिका मे आदरणीय नही, अपितु निंदनीय माना है। चूंकि वदहजमी के कारण वरसाती मेंढक-जीवन की तरह टर-टर किया करता है।
जीवन का दूसरा प्रकार-जो गभीर धीर सागरवत् जीता है । असीम वैभव के प्राप्त होने पर भी गर्वित न होकर विनम्र बना रहता है। इष्ट-अनिष्ट प्रसग मामने आने पर भी झलकता नहीं है। आपतु अन्य की कमजोरियो को सुधारने में, उनको ऊँचा उठाने मे उसके वास्तविक गुणो को विकसित करने-कराने में प्रयत्नशील रहता है ।
जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि जौक नामक जन्तु देहधारी के विकृत रक्त को पीया करता है । क्योकि उस जन्तु का स्वभाव