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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया आचार और विचार-पक्ष , १६५
और आज के नर-नारी अर्थ को साध्य मानकर उसके प्रति प्रगाढ आसक्ति भाव रखे हुए प्रतीत होते हैं। वस्तुत उसके लिए मानव कई तरह के हथकडे व देवी-देवताओ की मनौतियां भी करता है। तथापि अर्य प्राप्ति मे सफल नही होते क्योकि अपनाया हुआ तरीका विल्कुल गल्त एव भटकाने वाला है।
माना कि प्रत्येक वस्तु पाने के सही तौर-तरीके हुआ करते है । सही राह के बिना कोई भी कदापि अपने इष्ट को प्राप्त नही कर सकता है । धन-वृद्धि का भी एक तरीका है - मत्याचरण, धर्माराधना एव पुण्य-सुकृत आदि लक्ष्मो पाने का राजमार्ग है। सचमुच ही उपर्युक्त तरीको का उपयोग करने पर कालान्तर मे लक्ष्मी उम कर्ता की दासी वनकर रहती है। न कि पूजा-प्रतिप्टा व लक्ष्मी की माला मनौती से । जैसा कि - लक्ष्मी उवाच - "पुण्येनैव भवाम्यहस्थिरतरा युक्त हि तस्य जनम्' अर्थात् मानव ! मैं (लक्ष्मो) पुण्य से ही स्थिर रहती हैं। इसलिए मुझे प्रसन्न रखना चाहते हो तो सुकृत का उपार्जन करो।
बुद्धि का प्रखर तेज वुद्धिविहीन पार्थिव देह का मोटापन, गौरापन और रूप लावण्य की रोनक मानव के अभीष्ट सिद्धि मे महायक नही वाधक माने हैं । इसलिए कि - स्वेच्छा से इधर-उधर वह जा आ नही सकता है, देह को वढती हुई स्थूलता दिनो-दिन उम मानव को खतरे के निकट पहुंचाती और दासी-दास एव कुटुम्वी जनो के पाश मे पराधीन होकर रहना पड़ता है। जैसा कि "हस्ती स्थूल तनु स चाकुशवश. कि हस्तिमात्रोंऽफुश.।"
___ इसलिए कहा है-भले काया कुबडी, दुवली एव कुरुपा क्यो न हो, किन्तु उस देहधारी की गुद्धि विलक्षण कार्य करने मे सुक्ष्म है । उलझी, विगडी गुत्थी को सुलझाने मे, नारकीय जीवन मे स्वर्गीय मुपमा निर्मित करने मे, एव उप-क्लेप दावानल के वीच प्रेम पयोदधि बहाने मे निपुण है। ऐसे प्रबुद्ध नर एव सृष्टि के देवता माने गये हैं। कहा भी है - "तेजो यस्य विराजते स बलवान स्थूलेषु क प्रत्यय ।" अर्थात् जिसमे बुद्धि का प्रखर तेज विद्यमान है वह शक्ति सम्पन्न माना गया है ।
मन का भिखारी एक मानव वह है - जिमके पास पेट भरने को पूरा अन्न नही, तन ढकने को पूरे वस्त्र नही, सर्दी-गर्मी, दर्पा से बचने के लिए भव्य-भवन तो क्या किन्तु टूटी-टपरी भी नहीं। जो सदैव अनाथ की तरह फुटपाथ या बाग-बगीचो व धर्मशालाओ मे पडे रहते हैं। भूख लगी तो मांग खाया और प्यास लगी तो नल का पानी पी लिया। रोना आया तो अकेले ही रो लिया और हँसी आई तो अकेले ही हँस लिया । जिमका न कोई परिवार, घर, गाँव और न कोई समाज-सहायक है। ऊपर आकाश और पैरो तले जमीन ही जिसके आधार भूत है । आज का बुद्धिजीवी मानव उपर्युक्त दयनीय दशा वाले मानव को भिखारी की सजा प्रदान करता है।
वस्तुत विशाल दृष्टिकोण से मोचा जाय तो नि सदेह उपर्युक्त सामगी से विहीन मानव कदापि भिखारी नहीं । भिखारी तो वह है जिसके पास लाखो करोडो की सपत्ति जमा है, गगनचुम्बी अट्टालिकाओ मे मौज उडा रहे हैं। फिर भी शुभ कर्मों में उस लक्ष्मी का उपयोग करना तो दूर रहा, परन्तु पैसे-पैसे के लिए हाय-हाय करते, एव गली-गली मे धक्के खाते हैं। ऐसे मानव लाखो-करोडो के स्वामी होते हुए भी दरअसल दिल के दरिद्री एव मन के भिखारी माने गये है।