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१६० | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ सदैव गन्दी एव सडी-गली वस्तु का ग्राहक रहा है । उसी प्रकार एक समूह मानव का वह है-जो अन्याय व दुर्गुण स्पी गदगी को देखा करता व मिथ्यालोचना करके अपना सतुलन गुमा बंटना है, । उनकी दृष्टि मे सभी दुर्गुणी पाखण्ड व चार सौ बीम जान पटते है। ऐसे हीन प्रकृति ने नर-नारी तिगार के पास वनते हैं।
गाय के वण्डे का स्वभाव सदैव स्तनो मे ने दुग्ध-गान करने का है। उसी प्रकार मानव का एक समूह वह है- जो निश-दिन अन्यो के गुणो की ओर दया करते व तम्प गुद जीने का रंग नैयार कर लेते हैं । ऐसे गुण-ग्राही मानव सर्वत्र आदर के पात्र बनते हैं।
अपूर्ण मोर पूर्ण कूप-मण्डूक की तरह यदि कोई मुमुक्ष अपने विदु महण्य ज्ञान निधि पो गिन्नु नमान अनीम मान कर गर्वोन्मत्त हो जाना व अन्य दाशनिको को अपने आगे कुछ नही नमना ! नि मन्देह स्वयं को गुमराह करना व खुद को नवीन विकास प्रकाश से व चित रखना है । क्योकि अल्पनना एव बह भावावेश मे वह तुच्छ साधना को सर्वोपरि साधना मान वैठना है, ऐमा मानना अपूर्णता का प्रतीक है।
___इसलिए कहा है---"सम्पूर्णकुम्भो न फगेति गर्वम्" अर्थात् माधक को जब नरम-पन्म नाध्य की उपलब्धि हो जाती है । तब वह समस्त छद्मो से परे हो जाता है, तब वह विश्व बन्दनीय बन जाता है। उन्ही के बताये पथ के पथिक भी वास्तविक आनन्द को पाते हैं।
सम्यक् तराजू के दो पलड़े भौतिक सुख, समृद्धि की दृष्टि से देव यद्यपि मानव मे असीम गुणाधिक माने गये है ? जिन प्रकार सिंधु के मामने विदु का अस्तित्व नहीं के बनवर ही माना गया है । उसी प्रकार दैविक वैभव सिंधु सदृश्य और मानवीय-सम्पदा कुशाग्र भाग पर न्धित उस नन्ही वूद के समान आको गई है। जैसा कि
"जहा कुसग्गे उदग समुदेण सम मिणे । एव माणस्सग्गा कामा देव कामाण अतिए' ।।
इतने पर भी महामनीपियो ने दैनिक जीवन के गुण कीर्तन नहीं किये । किन्तु मृण्मय देहदानी चैतन्य को मभी दार्शनिको ने सर्वोत्तम मानकर गुण गाये हैं।'
__ कारण स्पष्ट है कि देव के पास दृष्टि है, सृष्टि नही, कर्म है धर्म नही, मत्र है तम नहीं, विलास है तो जीवन मे विकास-प्रकाश का अभाव है, और आहार विहार है तो वहां सदाचार नहीं। इन्ही कारणो से देव-जीवन केवल भौतिक सुखो का भोक्ता मात्र है । और मानव भौनिक सुखो का मोक्ता होने के वावजूद भी उसके पास मानव से महामानव बनने की सामगी मर्व मौजूद है । इस कारण समय पर मानव देव पर भी विजय पा लेता है।
दीधि पण लागी नहीं सदैव वटे-बुजुर्ग, अनुभवियो की बाते एव सलाह-शिक्षा, सामने वाले नर-नारी के भावी जीवन के लिये उसी तरह वरदान स्वरूप आदरणीय, सम्माननीय, सुखद मानी है, जिस तरह शुप्या रेगिस्तान मे वरसा हुआ पानी का एक कण-कण । चाहिए-उनके प्रति श्रद्धा-विश्वास एव उपयोग का सही तरीका । श्रद्धा के अभाव में एव गल्त तरीके के कारण दी गई अमून्य-अमूल्य शिक्षा भी निरर्थक साबित हो जाया करती है। इसलिए कहा है