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१८६ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
हे शिष्यो । इक्यानवे वर्ष पूर्व अर्थात् पूर्व भव मे मेरी आत्मा ने शक्तिपूर्वक एक पुरुप की घात की थी । तज्जनित कर्म-विपाक के कारण आज मेरे पैर मे काटा लगा है। भले ही यह हास्यास्पद वान हो किन्तु कर्म-विपाक मान लिया गया है।
पुगणो मे एक प्रसग चला है । एकदा 'धृतराष्ट्र काफी चितित थे। मेरे मौ पुत्र युद्ध मे मारे गये और मैं चक्षु विहीन । मैंने ऐसे कौन से निकृष्ट कर्म किये है जिससे आज मुझे अब बहाने पड़ रहे है । इतने में व्यान ऋपि ने कहा
राजन् । इसमे किसी को दोप नही है। खुद के किये हुए शुभाशुभ कर्म है । कमे ? सो सुनो।
पहले तुम्हारी आत्मा राजपद पर आसीन थी । तुम्हे सत्ता के मद मे परभव का कुछ भी डर नही था । तुम गये शिकार को । वहाँ हताश होकर एक धनी झाडी मे जाग लगा दी। उस झाडी मे एक सर्पनी ने सौ बच्चे दे रखे थे । विचारे सारे भस्म हो गये और सर्पनी मरी तो नही किन्तु अधी अवश्य हो गई।
राजन् ! उसी करनी का तुम्हे यह फल मिला है। इसमे शोक क्या करना ? इंसते हुए कर्ज चुकाना चाहिए सतोष धारण करो।
अवश्यमेव भोक्तव्य कृत कर्म शुभाशुभम् ।
नामुक्त क्षीयते कर्म कल्पकोटिशैतरपि ।। राजन् । अपने-अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मों का फल अपने को ही भोगना होता है। विना भोगे कर्मों का फल सैकडो-करोडो कल्प मे भी क्षय नही होता है।
हाँ तो जैन दर्शन मे कर्मों के अष्ट भेद माने हैं"आद्यो ज्ञानदर्शनावरण वेदनीय मोहनीयायुष्क नाम गोत्रान्तराया"
-तत्वार्थसूत्र अ० ८ सू० ५ अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्क, नाम, गोत्र और अन्तराय कर्म । इन कर्मों मे कितनेक शुभाशुभ और कितनेक एकान्त अशुभ माने गये हैं । शुभ कर्मों के प्रभाव से प्राणी ससारी सुखो को प्राप्त करता है और यदा, कदा, देव, गुरु, धर्म की प्राप्ति मे शुभ कर्म सहायक भी वनता है । अशुभ कर्मों की काली छाया से जीवात्मा नाना आधि-व्याधियो को भोगता है । मन मे आकुलव्याकुलता एव मस्तिष्क मे अशाति अस्थिरता का वातावरण बना रहता है। परन्तु मोक्ष के कारण न तो शुभ और न अशुभ हो है । क्योकि शुभ कर्म अर्थात् स्वर्ण वेडी और अशुभ कर्म अर्थात् लोह-वेडी सादृश्य माने हैं । अतएव "कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्ष " सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्मों का क्षय होने पर ही अयोगी अवस्था की उपलब्धि मानी है। और अयोगी अवस्था आते ही ऊर्वोन्मुखी यह आत्मा मोक्ष मे विराजित होती है । जहाँ जाने के वाद आत्मा को फिर ससार की गली-कु चो मे भटकना नही पडता है। क्योकि भटकाने वाले हैं - कर्म । पूर्णत उनकी यहाँ समाप्ति हो जाती है। आगम मे भी कहा है
जहा दह ढाण बीयाण ण जायति पुणकुरा । कम्म बीएसु दड् ढेसु ण जायति भवकुरा ।।