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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया कर्मप्रधान विश्वकरि राखा | १८५
स्वय कृत फर्म यदात्मना पुरा, फल तदीय लभते शुभाशुभम् । अर्थात् --कृत कर्म तो प्रत्येक को भोगने पडते है। भले करनेवाला दूसरो के लिए करे या अपने लिए परन्तु तज्जनित कर्म-कर्जा तो उस कर्ता को ही चुकाना पडता है।
किसी समय कई चोर चोरी करने जा रहे थे । उनमे एक सुथार भी शामिल हो गया था। चोर मभी एक धनाढ्य श्रीमत के यहाँ पहुँचे। वहां उन्होने सेध लगाते-लगाते दोबार मे काठ का एक पटिया दिखाई दिया । तव चोर बोले-वन्धु सुथार । अव तुम्हारी वारी है। पटिया काटना तुम्हारा काम है । सुधार पटिया कोटने लगा । अपनी कारीगरी दिखाने के लिए सैध के छेदो मे चारो ओर तीवे-तीखे कगुरे उसने बनाये और अतिलोभ वृत्ति के कारण वह खुद ही चोरी करने के लिए अन्दर घुसा । ज्यो ही उसने अन्दर पैर रखा, त्यो हो मकान मालिक ने उसके पैर पकड लिये।
मुथार चिल्लाया दौडो । दौडो । मुझे छुडाओ 1 मकान मालिक ने मेरे पैर पकड लिये है । यह सुनते ही चोर अपटे और सिर पकड कर खीचने लगे । सुथार विचारा वडे ही झमेले मे पड गया । भीतर और बाहर दोनो तरफ से जोरो की खीचातान होने लगी। वम, फिर क्या था? जैसे बीज उमने वोये वैसी फसल भी उसे ही काटनी पडी। उसके निज हाथो से बनाई हुई सैध के तीखे कगूरो ने हो उसके प्राणो का अत कर दिया। इसी लिए कहा है
"कत्तारमेव अणुजाइ कम्म" ।
विविध दर्शनों मे कर्मो की सत्ता :कर्मणा जायते जन्तु कर्मणव विपद्यते । सुख दुख भय क्षेम कर्मणैव विपद्यते ।।
-श्रीमद्भागवत स्कध १. अ० २४ __ कर्म से ही जीव, पैदा होता है और कर्म से ही मरता है। सुख-दुख-भय-क्षेम सभी कर्मजनित विपाक है । गीता में भी कहा है
न कर्तृत्व न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु ।
न कर्मफलसयोग स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ गीता अ० ५। १४ प्रभु न किसी के कर्तापने को उत्पन्न करता है, न किसी के कर्म को बनाता है और न किसी के कर्म का फल देता है।
वौद्ध दर्शन यद्यपि क्षणिकवादी है । क्षणिकवाद को मानकर चले तो नि सदेह कर्म विपाक की व्यवस्था बन नही सकती है । जैमे जिस क्षण मे जिस कर्ता ने जो शुभाशुभ कर्म किये हैं नजनित कम-विपाक भोक्ता के विषय मे भारी गडवडी पैदा होगी। चकि-करने वाला अब वह नही रहा । अव भोक्ता कौन ? किसी अन्य को मानेंगे तो निरी मूर्खता जाहिर होगी। और यह भी माना कि - कर्म विपाक दिये विना जाते भी नहीं है। वस्तुत आत्मा को एकान्त क्षणिक मानना सिद्धान्त विरुद्ध है। हो, पर्याय की दृष्टि से क्षणिक माना जाय किन्तु द्रव्य की दृष्टि से नही, फिर भी तथागत बुद्ध ने कर्मसत्ता को स्वीकार किया है। जैसे कि -
इत एकनवते कल्पे शक्त्या में पुरुषोहत । तत कर्मणो विपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षव ।।
-बौद्ध दर्शन
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