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१८० । मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
जाता है। कारण तो स्पष्ट ही है-धान्यनिधि के विना सासारिक कारोबार चल नही सकते और मित्रनिधि के अभाव मे सामाजिक, शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक आदि कोई भी विकास असम्भव है।
यदि सम्यक् प्रकार से मानव अपने मन-मस्तिष्क मे मित्रनिधि आदि को स्थान दे तो सत्वर ही मामाजिक, राजनैतिक व धार्मिक मर्व गुत्थियाँ सुलझ जायंगी, आपत्तियां छिन्न-भिन्न होते देर न लगेगी और ममाज एक हरी-भरी वाटिका के रूप में विकसित हो उठेगी। फिर उसमे स्नेह सरिता का अविरल प्रवाह फूट पडेगा । जहां, सगठन, विवेक और विनय के कमल खिलेंगे। हर्ष, खुशी सम और दम के मनोन मुखकारी, इप्टकारी फब्बारे उछल पड़ेंगे । समाज और राष्ट्र के विकास का स्रोत फिर कदापि अवरुद्ध नही होगा बल्कि प्रकाशवत उस समाज-सघ का भविष्य युग-युग तक जगमगाता रहेगा और नूतन चेतना व जागृति प्रदान करता रहेगा।
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