________________
तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया सम-दर्शन-माहात्म्य | १६५ "अनित्याशुचि दुखात्मसु नित्य-शुचि-सुखानात्मख्यातिरविद्या"
-योगशास्त्र अर्थात्-अनित्य को नित्य, अशुद्ध को शुद्ध, दु ख को सुख और आत्मा को अनात्मा मानना ही मिथ्यादर्शन कहलाता है।
मिथ्यादर्शन को सीधी-सरल भापा मे 'झूठा दर्शन' और शास्त्रीय भापा मे कहे तो "विपरीत श्रद्धान मिथ्या दर्शनम्" अर्थात् सत्कार्यों के प्रति जिनकी श्रद्धा-विश्वास विपरीत हो दान-देना, तपतपना, सदाचार का पालन करना आदि-२ कार्य पुण्य तथा मोक्ष के हेतु हैं परन्तु जिसकी दृष्टि पर मिथ्यात्वरूपी धने वादल छाये हुए हैं, उसे पुण्य-काय ढोग-ढकोसले के रूप मे ही दिखाई देते है जैसा किअदेवे-देव बुद्धिर्या गुरुधीरगुरौ च या, अधर्मे धर्म बुद्धिश्च मिथ्यात्व तन्निगधते ।।
-योग-शास्त्र अर्थात्--अदेव मे देव वुद्धि, कुगुरु मे गुरु बुद्धि एव अधर्म मे धर्म की परिकल्पना करना मिथ्या दर्शन कहलाता है । और भी
समदृष्टि को सम विषम दृष्टि को विषम लखाता है।
जैसा चश्मा हो आँखो पर वैसा ही रग दिखाता है। ___ हां तो, पीलिये रोग के ग्रस्त रोगी को पूछिये कि-तुम्हे यह सृप्टि कैसी दिखाई देती है ? उत्तर में वह यही कहेगा कि-मुझे यह विशाल सृष्टि पीले रगवत् दिखाई देती है । अत यह उचित ही है कि-यादृशी दृष्टि तादृशी सृष्टि '' यानी जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि ।
___इस प्रकार मिथ्यादर्शी जिनेन्द्र देव की आज्ञा का आराधक नहीं बन सकता है । हालाँकि-- मिथ्यादर्शी जीव को जीव मानता है गाय को गाय, घोडा को घोडा और स्वर्ण-रजत आदि को तद्वद् रूप से मानता-जानता है तो फिर शका होती कि-मिथ्यात्वी की उपाधि से उसे कलकित क्यो किया जाता है ? इसका समाधान यह है कि ऐसा कहने तथा मनुप्य को मनुष्य मानने मात्र से ही उसका मिथ्यादर्शन छूट नही जाता है और मम्यक् दर्शन आ नही जाता है । कारण कि -- जिसके दर्शन मोहनीय का क्षय, क्षयोपशम या उपशम होगया हो और जो पुण्य-पाप, स्वर्ग नरक आदि पर श्रद्धा प्रतीति लाता हो, बस, वही सम्यक्दृष्टि हो सकता है । अन्यथा भौतिक तत्त्ववेत्ताओ को भी सम्यक् दृष्टि ही मानना पडेगा। क्योकि उन्होंने विश्व को अचरजकारी शक्तियां अर्पित की है । परन्तु ऐसा मानना उचित नहीं है। कारण कि दर्शन मोह के क्षयोपशमादि न होने से वे सम्यक् दर्शन के उपासक नही कहला सकते है । और शास्त्रो मे कहा गया कि-अश मात्र भी अश्रद्वा हो तो वह सम्यक् दृष्टि नहीं होता।
"द्वादशागमपि श्रुतं विदर्शनस्य मिथ्ये ।" यदि किसी ने १२ अग भी पढ लिये परन्तु दर्शन (श्रद्धा) शुद्ध नहीं है तो वह अव्ययन नही के बरावर ही है । और देखिए"मिथ्यादृष्टि परिगृहीत सम्यक्श्रुतमपि मिथ्याश्रुत भवति"
-तर्क-भापा मिथ्यादृष्टि द्वारा ग्रहण किया हुआ मम्यक्श्रुत भी उसके लिये वह मिथ्याश्रुत ही है। भले उसके सामने भगवती के भागे, स्थानाग की चोभगियां और उत्तराध्ययन के अनमोल अभ्यायो को खोल के रख दो तथापि विपरीत रूप से परिणत करेगा।