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१७० | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
वैराग्य ऐसे तो कई प्रकार के वाह्यनिमित्तो को पाकर उद्भव होता है परन्तु वहाँ मुख्य रूप से तीन ही कारण बताये जाते हैं । शेप कारण उपरोक्त तीन कारणो मे समावेश हो जाते है ।
यद् दुखेन गृह जहाति विरतस्तद् दुखगर्भ मतम् ।
मोहादिष्टननेमृते मुनिरभूत् तन्मोहगर्म खलु ॥ ज्ञात्वाऽऽत्मानमल मलादुपरतस्ज्तज्ञानगर्भ पर। सच्छास्त्रऽधम मध्यमोत्तमतया वैराग्यमाहु स्त्रिया ।।
दुख से होने वाला वैराग्य धन, धरती, पुत्र, परिवार आदि की अनुकूलता ठीक न होने पर तथा प्रतिकूलता प्राप्त होने पर मानव को आराम नही मिला, दुत्कारें मिली, तिरस्कार मिला या मनमानी चीज नहीं मिली तो मन मे भाव-उमिया जाग उठी कि - छोडो इम इन्द्रजाल को और इन स्वार्थी परिवार के सदस्यो को । यह दुख-गभित वैराग्य है। इस प्रकार के वैराग्य का उतार-चढाव मानव जीवन मे अनेक वार आया करता है पर स्थाई रग नहीं रहता है। अत यथार्थ वैराग्य की कोटि मे नही है। जैसा कि-एक भाई को खिचडिया वैराग्य उत्पन्न हुआ। सदैव घरवाली के सामने गीत गाने लगा - "मैं दीक्षा स्वीकार करना चाहता हूँ। तू मुझे जल्दी इजाजत लिख दे । नारी का स्वभाव सदा भयातुर होता है । घर वाली विचारी गडवडा उठी । हाय । मेरा क्या होगा ? जीवन कैसे बीतेगा? मैं निराधार बन जाऊँगी।"
चिन्तातुर वनी हुई पडोसिन बुढिया के यहाँ पहुची । अम्मा जी | मैं तो बहुत परेशान हो गई । आप के पुत्र दीक्षा लेना चाहते हैं । और अनुमति के लिये मुझे हमेशा परेशान करते हैं।
पडोसिन मां ने सोचा-यह वैराग्य नहीं, पाखण्ड होना चाहिए । बोली- वह | वंराग्य कव से आ गया?
एक रोज तपस्वी मुनि मेरे यहाँ गोचरी आए थे । उनके पात्र मे घी से भरी खिचडी मिष्ठान्न आदि थे । वस उसी दिन से यह रट शुरु हुई है।
अच्छा मैं समझ गई । इसका इलाज भी करना जानती हूँ।
वहू । यह सामग्री अपने घर पर ले जा। वढिया खिचडी बना करके उसमे पूरा घी उडेल देना । घट जायगा तो मैं और दे दूंगी। किन्तु कजुसाई मत करना ।
उसने वैमा ही किया। भोजन करके बोला—वाह ! वाह ! याज तो मजा आ गया । ऐसी खिचडी हमेशा मिलती रहे तो भगवान् | कोन वावा बने ? वैराग्य, वैराग्य के ठिकाने लगा। इमको खिचडिया वैराग्य अथवा वैराग्याभास भी कहते हैं।
उसमे जो एक प्रकार की आकुलता-व्याकुलता है-वह वैराग्य का रूपान्तर मात्र है । उसमे तो राग ही कारण है। क्योकि दुख के कारण हटने पर अर्थात् मनोनुकूलता प्राप्त हो जाने पर तथा कुटुम्बीजन मन-मुताविक सेवा-शुश्रूषा करने पर जो ससार त्यागने के भाव थे, उन भावो मे पुन शिथिलता विकृति आ जाती है। यानि त्याग-वैराग्य का भाव रहना कठिन है । उसमे केवल जो पदार्थों को दुख का कारण समझने का भाव है, वही वंराग्य का अश है । अत उसे अधम वैराग्य कहा गया है। किन्तु उस समय यदि सुगुरु आदि का वढिया मग मिल जाय तो वही वैराग्य खूब बढकर आत्मोद्धार का कारण भी बन सकता है । इसलिये उसे वैराग्य कहा है ।