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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया मृत्यु जय कैसे बने ? | १६३ देवाधिदेव । मैं मृत्यु मार्ग पर अग्रसर हो रहा हूँ। मुझे मुक्ति रूपी नगरी मे पहुचना है । मुक्तिपुरी तक सकुशल पहुचने के लिए मुझे समाधि का बोध प्रदान करें। जिसमे मेरी यात्रा सानन्द पूर्ण होवे । इस प्रकार मेधावी नर-नारी ऐसा चिन्तन-मनन किया करते हैं। क्योकि उनकी अन्तरात्मा मरण के प्रकार को समझ चुकी है । ऐसे पडितो का मरण वार-वार नही हुआ करता है । जमा किपडियाणं सकाम तु उक्कोसेण सई भवे ।
---उत्तराध्ययन अ० ५ गा० ३ अर्थात्-आत्मवेत्ताओ का सकाम (पडित) मरण होता है। और वह भी उत्कृष्ट एक बार ही होता है । उन्हे फिर मरना नहीं पडता है। अपितु आत्मभाव मे जो जाग चुके हैं वे स्वय मृत्यु को परास्त करने में लगे रहते हैं। इसकारण एक क्षण भी व्रत नियम मर्यादा से जीवन को रिक्त नहीं रखते हैं । सोने के पहले भी ऐसी सुविचारना की प्रतिज्ञा करके फिर निद्रा लेते हैं -
"भक्खति, डज्झति, मारति, किवि उवसग्गेण मम माउ अन्तो भयेज्ज तहा सरीरसग मोहममता अट्ठारस पावट्ठाणाणी चविहपि असण, पाण खाइम, साइम वोसिरामि, सुहसमाहिएण निद्दावइक्कती तओ आगारो।"
- जैनतत्त्व प्रकाश प्रभो । सोते समय यदि मुझे सिंह आदि खा जाय, आग लगने से शरीर जल जाय, पानी मे वह जाऊ', शत्रु आदि मार डाले या किसी अन्य उपसर्ग से मेरी आयु का अन्त हो जाय तो मैं अपने शरीर सम्वन्धित मोह-ममता का व अठारह पाप स्थानो का और चार प्रकार के आहारो का त्याग करता हूँ। अगर सुखपूर्वक जाग्रत हो गया तो सब प्रकार से खुला हूँ। उपर्युक्त विचारो के साथ-साथ
आहार शरीर उपधी पचखू पाप अठार ।
मरण पाऊँ तो वोसिरे जीऊँ तो आगार ॥ हाँ तो सज्जनो । वालमरण और पडितमरण के विपय मे मैंने काफी कह दिया है। अतएव प्रशस्त मार्ग को लेना वुद्धिमान का कर्तव्य है। पडित मरण ही मृत्यु जय वनने का अचूक मार्ग है । चित्त सभूति दोनो भ्राताओ ने अन्ततोगत्वा पडिन मरण को ही वरा । रत्न-त्रय की विशुद्ध साधना मे जीवन को नियोजित करें ताकि अमरता की प्राप्ति होवे ।