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१५६ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ यदि यह व्यवस्था नही मानी जाय तो वस्तु का अस्तित्व खतरे मे पडना स्वाभाविक है फिर न ;जड़-- रहेगा और न चेतन ही । अतएव सभी स्वतत्र सत्ता के धारक है । तात्पर्य यह है कि वस्तु अत्यधिक विराट-विज्ञान मय है । इतनी विस्तृत है कि अनन्त दृष्टिकोण मे देखी और जानी जा सकती है। अपनी दृष्टि का आग्रह करके दूसरो की दृष्टि का तिरस्कार करना स्वय की ना समझी है।
___ इस तरह जव वस्तु अनन्तधर्मात्मक है तव मनुप्य सहज ही मे यो सोचने लगेगा कि दूसरा मानव जो कुछ कह रहा है उसके अभिप्राय को भी स्थान देना चाहिए । जब इग प्रकार वैचारिक समन्वय का सुन्दर सगम हो जायगा, तव उलझी हुई सर्व समस्या स्वत सुलझ जायगी । भगवान् महावीर का यह अद्वितीय सिद्धान्त रहा है।
वाणी मे स्याद्वाद: 'स्यात्' का अर्थ कयचित् है और वाद का अर्थ है--कथन । इस प्रकार स्याद्वाद का अर्थ कथचित् कथन होता है इसका अर्थ 'शायद' नही लेना चाहिए । क्योकि शायद् शब्द का अर्थ संशय है, जो कि-मिथ्याज्ञान का प्रतीक है । और न स्याद्वाद का अर्थ सभावना लिया जा सकता है। क्योकि सभावना में वस्तु का असली म्वरूप नही आ सकता। इसी प्रकार स्याद्वाद का अर्थ न सशयवाद है न अनिश्चयवाद और न सभावनावाद किन्तु अपेक्षा प्रयुक्त निश्चयवाद है-जैसे एक स्त्री बुढिया होने से दादी कहलाती है, किंतु उसका बूढा होना 'दादी' का ही सूचक नही है अपितु वह अपेक्षा से किसी की नानी, मामी, बुआ और किनी की भाभी भी कहलाती है। इस प्रकार ही बुढिया अनेकानेक विशेपणो से पुकारी जाती है । वस्तुत इससे न तो बुढिया को ही वावा है और न पुकारने वाले को आपत्ति है । इस सिद्वान्तानुसार एक वस्तु जिसमे अनेक धर्म है उन्हे अपेक्षा मे कहे जाते है । जमा कि
दशरथ राजा के पुत्र राम - लव कुश के पिता कहलाते हैं। पिता-पुत्र के उभय धर्म उस रामचन्द्र मे पाते हैं।
__-जैनदिवाकर जी म०दशरथ राजा की अपेक्षा राम उनके पुत्र है तो लव-कुश की अपेक्षा राम पिता भी है । अनेक अपेक्षाओ से अनेकधर्म एक वस्तु मे विद्यमान हैं । इस प्रकार सर्वत्र स्याद्वाद शैली में कार्य करना चाहिए । फलत अनेक विवाद स्वत हल हो जायेगे । क्योकि कहनेवाला अपने दृष्टिकोण से कहता है और सुननेवालो को कहने वालो का दृष्टिकोण समझना चाहिए। यदि वक्ताओ के विचारो से वह महमत नहीं हो तो सुनने वालो को अपना अभिमत वक्ताओ के समक्ष रखना चाहिए और समझना चाहिए कि मैं इस अपेक्षा से कह रहा हूँ । अतएव विवाद छोडकर अनेक धर्मात्मक वस्तु को समझना चाहिए । इसको समझने के लिए छ अन्धो की हाथी वाली कहानो पर्याप्त रहेगी।
उपर्युक्त पक्तियो मे अनेकात व स्याद्वाद पर पृथक-पृथक प्रकाश डाला है। यद्यपि अधिक । रूपेण आज का समाज दोनो शब्दो मे विशेप भेद नही मानता है किंतु दोनो मे अवश्य अन्तर है। अनेकान्त मानम शुद्धि के लिए है और स्याद्वाद वचन शुद्धि के लिए है।।
समाज में अपरिग्रहवाद : जैन मुनि के जीवन के लिए परिग्रह रखना अथवा रखवाने का विधान नहीं है। यद्यपि वस्त्र, पात्र, रजोहरण मादि मुनि जीवन मे सम्बन्धित है तथापि उपर्युक्त धार्मिक उपकरणो को भ० महावीर