________________
तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया भगवान महावीर के चार सिद्धान्त | १५५ जानने वाला वह साधक सयम को कैसे जानेगा? वस्तु विज्ञान की जानकारी के अभाव मे विचारो मे अनेकात नही आ सकती और अनेकात सिद्धान्त के विना वस्तु का वास्तविक परिज्ञान मुमुक्षु को कैसे होगा ? कहा है—"अर्थस्तुस्वतो न सम्यक् नाप्यसम्यगिति" । (स्याद्वाद मजरी टीका) अर्थात् वस्तु अपने आप मे न बुरी न अच्छी है । अच्छाई और बुराई का प्रश्न प्रयोगकर्ता पर निर्भर है । क्योकि वाद विवाद वस्तु मे नही । कभी भी ऐसा अवसर नहीं आया कि वस्तु वस्तुत्व से मर्वथा नष्ट हो गई हो, इतना अवश्य ध्यान रहे कि वस्तु की पर्याय मे प्रतिपल परिवर्तन अवश्य होता रहता है।
___जनदर्शन किसी भी सत् द्रव्य को वेदान्त दर्शन की भांति केवल धूव या नित्य नही मानता, बौद्ध दर्शन की भाति क्षणिक, एव साख्य दर्शन की तरह ऐसा भी नहीं मानता कि-पुरुप तो कूटस्थ नित्य और प्रकृति परिणामी नित्य है। अपितु अर्हतदर्शन की यह विशेपता रही है कि वह सभी पदार्थों को परिणामी के साथ ही नित्य भी मानता है । अर्थात् "सर्वेहि भावा द्रव्याथिर नयापेक्षया नित्या पर्यायाथिक नयापेक्षया अनित्या.।" स्पष्ट बात यह है कि-भले अचेतन या चेतन, अमूर्त या मूर्न, सूक्ष्म या स्थल इत्यादि समस्त पदार्थ "उत्पाद व्यय प्रौव्य युक्तं सत् ।" जो उत्पत्ति विनाश और स्थिरता युक्त है वही सत् है । जिसके सामान्य लक्षण निम्न हैं-अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, सत्व और अगुरु लघुत्व । आचार्य प्रवर ने विपय को अति सुगम बना दिया है। एक लघु रूपक के माध्यम से
घटमौलि - सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थिति स्वयम् । शौक प्रमोद माध्यस्थ जनो याति सहेतुकम् ।।
-न्यायदर्शन , तीन मानव एक स्वर्णकार की दुकान पर पहुचे । एक स्वर्णिम कुम्भ खरीदने का इच्छुक, दूसरा मुकुट का और तीसरा केवल मोने का ग्राहक था। दुकान पर पहुंचते ही देखा कि स्वर्णकार सचमुच ही कुम्भ को तोडकर मुकुट बना रहा है । कुम्म पर्याय का विनाश होता देखकर कुश्भ खरीददार को दुख हुआ, मुकुट पर्याय की उत्पत्ति को देखकर मुकुट लेने वाले को प्रसन्नता हुई और केवल सोने के ग्राहक को न शोक न हर्प अपितु वह मध्यस्थभाव में था। कारण कि-मूल वस्तु ज्यो की त्यो स्थिर थी।
हाँ तो, जिस वस्तु को जिस दृष्टिकोण से तुम देख रहे हो, वह उतनी ही नहीं, कई दृष्टिकोण से विरोधी मालूम होती है । विरोधी धर्म भी वस्तु मे विद्यमान हैं । अपने मन मे यदि पक्षपात की भावना को तिलाजलि देकर दूसरे के दृष्टिकोण से विपय को देखो तो पता चलेगा कि-वस्तु कैसी है ? वस्तु न एक धर्मात्मक है और न सर्वधर्मात्मक । अनतधर्मात्मक वस्तु मे सर्व समस्याओ का ममाधान निहित है । अतएव जड के अनन्त धर्म जड मे और चेतन के अनन्त धर्म चेतन मे विद्यमान हैं । एक दूसरे का धर्म न पर द्रव्य में प्रविष्ट होता है और न निज स्वभाव से पृथक ही । कहा है-"सग सग भाव न विजहति" अर्थात् निश्चय नय की दृष्टि से कोई भी द्रव्य निज स्वभा का कदापि परित्याग नहीं करता है । अगर ऐसा होने लग जाय तो वस्तु सर्वथा नष्ट हो जायेगी।
सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च । अन्यथा सर्व सत्व स्यात् स्वरुपस्याप्यसभव ।।
- न्यायदर्शन स्वभाव की अपेक्षा सभी वस्तुएँ सद्भावमय हैं और परभाव की अपेक्षा नास्तिरूप है।