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३२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य
जन-जन की आंखो में-- सर्व परीक्षाओ मे उत्तीर्ण हो जाने के पश्चात् ही ससारी जन उस साधक की कीमत आकता है । ऐसा कौन होगा-जो सच्चे वैरागी आत्मा को लखकर उसका मन-मयूर नाच न उठता हो । वस, अविलम्ब मन्दसौर के इधर-उधर भागो मे विरक्त प्रताप के गुणो की भूरि-भूरि प्रशसा होने लगी। समाज के कार्यकर्ताओ को भी पक्का विश्वाम हो गया कि ऐसे पवित्र हृदयी जन ही स्वपर काउत्थान कर सकते हैं। सघ के कमनीय-रमणीय प्रागण मे भारी आनन्द हर्प उमड पडा । घर-घर में आनन्दोल्लास, मगलगान के फुव्वारे फूटने लगे । वंरागी वीद क्या आया, मानो हर्प-प्रमोद एव सुख शान्ति का जादूगर आया हो । सर्वत्र सुखमय वातावरण का निर्माण हो चला।
और साथियो का मधुर मिलन"अधिकस्य अधिक फलम्" अर्थात् अत्यधिक उत्साह उमग बढने मे दूसरा कारण यह भी था कि-मन्दसौर निवासी श्री हीरालाल जी दूगड (प्र० श्री० हीरालाल जी म०) एव आप श्री के पूज्य पिता श्री लक्ष्मीचन्द जी दूगड (स्व० श्री लक्ष्मीचन्द जी महाराज) आप दोनो भी गुरु भगवन्त श्री नन्दलाल जी म० के पवित्र पाद पद्मो मे वैराग्यावस्था की साधना मे लवलीन थे। इस प्रकार वाप-बेटा और वैरागी प्रताप इन रत्नत्रय के आलोक से सघ-सुमेरु दिन-दुगुना और रात चौगुना आलोकित हो उठा और सघ के मधुर एव स्नेह भरे वातावरण से तीनो भाव साधक भी चमक-दमक उठे। ठीक ही कहा है कि
चार मिले चौसठ खिले, बीस रहे कर जोड़।
सज्जन से सज्जन मिले, हुलसे सातू फोट ॥ तत्पश्चात् मघ एव गुरुदेव ने सुयोग्य पात्र समझकर ६५ दिन के पूर्वाभ्यास के बाद ही अर्यात्-मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमा सवत् १९७६ की शुभ वेला मे अत्यन्त समारोह-शान्त वातावरण के क्षणो में केवल वैरागी प्रताप को जैनेन्द्रीय दीक्षा प्रदान की।
जाए सध्दाए निक्खतो, परियायठाणमुत्तम । तमेव अणु पालिज्जा, गुणे मायरिय सम्मए ।
-भ. महावीर हे जिज्ञासु । जो गृहस्थ जिस श्रद्धा से प्रधान दीक्षा स्थान प्राप्त करने को मायामय काम रूप ससार से पृयक् हुआ, उमी भावना से जीवन पर्यंत उसको तीर्थंकर प्ररूपित गुणो मे वृद्धि करते रहना चाहिए ।