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गुरुवर्य की परिचर्या
गुरु नन्द का स्थिरवास - "विहार चरिया इसिण पसत्या" यद्यपि विहारचर्या मुनिजन को अति अभीष्ट है और तदनुसार श्रमण-श्रमणी विहार करते हुए गाव-नगर-पुर-पाटनावासियो मे धार्मिक चेतना-जागृत करते हैं। इम महान् उद्देश्य को लेकर उनका पर्यटन-परिभ्रमण हुआ करता है। शास्त्रविधान का स्पप्टत उद्घोप यही बताता है कि---"मुने । तू पानी के स्रोत की तरह विशुद्धाचारी वनकर आस-पास के जनमानस को ज्ञान पय से प्लावित करता हुआ आगे से आगे बढना। तेरी सयम यात्रा का पवित्र प्रवाह निरन्तर प्रवाहमान रहे । चूकि~-तेरे जीवनाश्रित जन-जन का हित निहित है।" तथापि श्रमण, जीवन पर्यंत के लिए विशेष शारीरिक कारण वशात् किसी एक सुयोग्य स्थान पर रुक भी साता एव रह भी मकता है। कारण यह है कि-साधन (शरीर) जीर्ण-शीर्ण अवस्था को पहुंच चुका है । अतएव एक स्थान पर रुके रहना, यह भी शास्त्रीय मर्यादा और सर्वज्ञ-आदेश की परिपालना ही है ।
इसी नियमानुसार गुरु भगवन्त श्री नन्दलाल जी म० भी शारीरिक अस्वस्थता के कारण काफी अर्से तक रतनपुरी (रतलाम) नीमचौक जैन स्थानक मे विराजते रहे। लघु शिष्य के नाते श्री प्रतापमुनि जी को भी गुरु-परिचर्या एव अधिकाधिक ठोस शास्त्रीय अध्ययन करने का सुअवसर महज मे ही हाथ लगा।
गुरु का वात्सल्य
शिष्य के लिए गुरु का वासल्य जीवनदायिनी शक्ति के समान होता है। उनके विना शिष्यत्व न पनपता है और न विकास-प्रकाश पाकर फलदायी ही बन सकता है। शिप्य की योग्यता गुरु के स्नेह को पाकर धन्य-धन्य हो जाती है। और गुरु का वात्सल्य शिष्य की योग्यता पाकर कृत कृत्य होता है । गुरु के प्रति शिप्य आकृष्ट हो, यह कोई विशेष वात नही है। किन्तु जव शिप्य के प्रति गुरु प्रवर आकृष्ट होते हैं, तब वह विशेष बात बन जाती है। गुरुदेव श्री नन्दलाल जी म० के पास दीक्षित होकर तथा उनका सान्निध्य पाकर आपको जो प्रमन्नता प्राप्त हुई थी, वह कोई आश्चर्य जनक बात नही थी। परन्तु आपको शिष्य रूप में प्राप्त कर स्वय गुरुदेव को जो प्रसन्नता हुई थी, वह अवश्य ही आश्चर्यजनक थी। आप ने गुरु प्रवर का जो वात्सल्य पाया था, वह नि सन्देह अमाधारण था । एक ओर जहाँ वात्सल्य की असाधारणता थी, वहाँ दूसरी ओर नियन्त्रण तथा अनुशासन भी कम नही था। कोरा वात्सल्य उच्च खलता की ओर घसीटता है, तो कोरा नियन्त्रण वैमनस्य की ओर ले जाता है, पर जव जीवन मे वात्सल्य, नियन्त्रण एव ज्ञान तीनो के सुन्दरतम समन्वय की त्रिवेणी हिलोरें मारने लगती हैं तथा जीवन मे प्रत्येकवस्तु-विज्ञान का नाप-तोल एव मन्तुलन सुयोग्य रहता है तब वह सन्तुलन ही जीवन के हर क्षेत्र मे साधक को, णिप्य को और सन्तान को उन्नति के शिखर पर पहुंचाता है।