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७६ | मुनश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ से काफी प्रभावित हो चुका था। किंतु श्री सूर्यसागर जी म० एव श्री नेमिसागर जी म० के सम्मिलित व्याख्यान व स्नेह मिलाप न हो पाया था। वस्तुत दिगम्बर समाज के अनुयायियो को जमा चाहिए वैसा सतोपानुभव नही हो रहा था। .
अवसरज्ञ प्रबुद्ध वर्ग द्वारा दोनो आचार्यों के व गुरु प्रवर के सम्मिलित प्रवचन हो, ऐमी योजना तैयार की गई। तदनुसार मुनिवरो से स्वीकृतियां प्राप्त कर रविवारीय कार्यक्रम प्रकाशित भी करना दिया गया.। -
-सहमा कुछ गई-गुजरी बाती को लेकर दोनो आनार्यों में तना-ननी वट गई । मंयुक्त व्यान्यान “योजना खटाई में जा गिरी। दोनो महा मनस्वियो को ममझावे कौन ? प्रकृतियो का उदयभाव विचित्र हुआ करता है । यदि व्यारयान शामिल नहीं हुए तो सचमुच ही कार्यकर्ताओं की एव जिन - शासन की ‘अच्छी नहीं, लगेगी ऐसा नोचकर दिगम्बर समाज के कुछ जाने-माने महानुभाव गुरुदेव श्री की सेवा में - आयेऔर सारी घटना की मूलोत्पत्ति कह सुनाई।
.! -- मुनि जी ! आप शाति के अग्रदूत हैं। वहां पधार कर हमारे दोनो आचार्यों को समझाकर पारस्परिक वैमनस्यता को खत्म करवा दीजिएगा । ताकि रविवार की विस्तृत व्या च्यान योजना सफल बन सके । हमे विश्वास है कि-आप जोडने की कला मे कुशल हैं । आपकी जुबान में पीयूष भरा, है। इस कारण वातावरण अच्छा बनेगा।
--- गुरुदेव ने आगत - दिगम्बर समाज के कार्यकर्ताओ को पूर्ण विश्वास दिया। उनके नन्न. "निवेदन पर-वहाँ पधारे । वात की वात मे दोनो आचार्यों के बीच प्रेम की गगा वहा दी । खुशी के फव्वारे फूट पडे । व्याख्यान योजना आशातीत सफल रही । इस प्रकार दिगम्बर जैन समाज मे गुरुप्रवर का शाति मिशन सफल हुआ । यत्र-तत्र सर्वत्र स्नेह सरिता वहाने वाले साधक की जय घोप से धर्मशाला का प्रागण मुखरित हो उठा। । -
-:-.--.-.-३ गुरुदेव के उत्तर ने मुझे आकर्षित किया . . .
, सम्वत् २०१० की घटना है। स्व० सती-शिरोमणि गुराणी जी श्री वालकु वर जी मसा० आदि सती वृन्द का चौमासा 'हरसूद' मध्यप्रदेश मे था । येन केन-प्रकारेण उज्जैन से मेरा भाग्य भी उन सतियो की विहार यात्रा मे माथ था। पाद यात्रा के कडवे-मीठं अनुभव करते हुए हरसूद नगर मे सती वृन्द का प्रवेश हुआ । स्थानीय सघ का अत्यधिक स्नेह देखकर मैंने भी चातुर्मास पर्यन्त वही रहना ठीक समझा । कतिपय मज्जन वृन्द मुझे अपने यहां पर रखने लिये अति उत्सुक थे और सतीजी से कहलाया .भी सही, किन्तु मेरी अन्तरात्मा. विल्कुल इन्कार पर इन्कार कर रही थी। जैसाकि:--'पहले का ना धोया कीच, फिर कीच वीच फसे". इस कहावतानुसार दलदल मे उलझना मैंने ठीक नहीं समझा। ...
___अन्तत वर्षावास पूर्ण होने आया । तव वडी महामतीजी ने फरमाया कि--रतन, चातुर्मास . पूर्ण हो रहा है, अब तुम्हे अपने भाग्य का निर्णय कर लेना चाहिए । क्या करना ? कहाँ रहना ' और : कहाँ जाना ? मानाकि तुम्हे रखने वाले साधर्मी वन्धु वहुत हैं, तथापि अपनी बुद्धि से जिस क्षेत्र मे रहने
में तुम्हारी अन्तगत्मा प्रसन्न हो नि सकोच उस मार्ग का चुनाव कर लेना चाहिए । पताका की तरह म