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द्वितीय खण्ड : अभिनन्दन शुभकामनाए वन्दनाञ्जलियाँ | १०१ आकर उपदेश श्रवण कर कृतकृत्यता का अनुभव करते हैं । फिर पास्परिक चर्चा मे भी कथित को दुहराते हैं वह इसलिए कि विपय उसकी समझ मे आ जाय ।
पर्यटक मानव एक स्थान मे रहता है तो अनुभवशील नही होता है क्योकि उसकी वातो मे नवीनता का अभाव होता है, नवीन अनुभवो मे वह हीन है, किन्तु जिसने यथेष्ट मात्रा मे परिभ्रमण कर लिया है, प्रत्येक स्थानो को गहराई में देखने की कला में माहिर है वह अपने अनुभवो को ज्ञान तन्तुओ की तुलनात्मक लय मे जाधकर कहे सजोये मवारे तो वह-अनूठी होती है अनोखी होती है आप सच्चे अर्थों में परिव्राजक हैं जो मालवा मेवाड के डगर से तो परिचित है ही, किन्तु सुदूरवर्ती प्रदेश वग प्रदेश (पश्चिम) महाराष्ट्र उत्तर प्रदेश की भूमि भी आपके चरणरज से पवित्र हो गयी है। गुजरात भी अछूता न रहा, वह भी अपने पवित्र स्पर्श से उपदेश की अमित धारा से पावन किया है । अपने जीवन को उन्नतिमय पवित्र शील बनने की कला मे भी आप पटु है किसी को भी अपना बनाने की कला मे पटु है, मिद्धहस्त है । अपना बनाने की कला में हर कोई पढ़ नहीं बन सकता वह तो विरल प्राणियो मे ही देखी जाती है।
आप मे यह मद्गुण भी देखा जाता है कि जो भी अपने कार्य करने का निश्चय कर लिया उस पर गहन मनन के वाद यदि नही हो तो उसे करे बिना चैन भी नहीं पडता, करना है इसीलिए करना नही । कर्त्तव्य है करणीय है इससे सुफल निकलेगा वम इसी भावना, से कार्य करने मे कटिवद्ध हो जायगें फिर तो अनेको वाधाएं मुह पसारे सामने खडी हो जाय या अन्य कुछ भी हो जाये करके ही छोडेंगे ।
___ आज उनकी जो स्वर्ण जयन्ति मनाई जा रही है अभिनन्दन ग्रय भेंट करने का जो आयोजन चल रहा है वह अतीव हर्प का विषय है। मैं श्रद्धेय श्री श्री प्रतापमल जी म. सा. को हार्दिक अभिनन्दन प्रेपित कर रहा हूँ। साथ मे मेरी यह भावना बताने का लोभ भी नही सवरण कर पा रहा हूँ कि दीक्षा की मौवी जयन्ति मानने के आयोजन मे मैं भी शामिल होऊ व अपना मन्तव्य सहस्रायुभव कहकर पूरा करूं। इसी भावना के साथ-साथ पुन पुन अभिनन्दन जय वन्दन के माथ विरमामि ।
प्रतिभासम्पन्न व्यक्तित्व : एक विश्लेषण
-मुनि रमेश सिद्धान्ताचार्य, साहित्य रत्न गुरु प्रवर के यशस्वी जीवन के सम्बन्ध मे जितना भी लिखा जाय, वह अपर्याप्त ही रहेगा। आप मे उदारता, गुणग्राहकता, मिलनसारिता, धैर्यता, विवेकता और समन्वयता के साथ-साथ परिस्थितियो के समझने को खूवी अजव की रही है। निरभिमानता, समता आदि कूट-कूट करके जीवन के कण-कण मे ओत-प्रोत हैं । यही कारण है कि-विरोधी जन भी आप के सान्निध्य मे उपस्थित होकर विरोधी भावना भूल से जाते हैं और अक्षुण्ण आत्मशाति का अनुभव कर वही ईर्ष्या-द्वेष के किटाणुओ को विसर्जन कर देते हैं । ।
कानो से वातें करती करुणा-पृारत आखें, सुन्दर पलको की पाखें, शात सौम्य चन्द्रानन, चमकता विशाल भाल, चाँदी सी दमकती केशावली, धनुपाकार भौहे, शुचि शुक नासिका, अमृत रसमय अधर पन्लव, दत मुक्ता, "क्ति-द्वय की विद्युत् छटा, गोल गुलावी गाल, मन मोहक मुंह पर मधुर