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द्वितीय खण्ड अभिनन्दन शुभकामनाएं वन्दनालिया | १२७
गुरु-गुरण-माला [तर्ज -सुनो सुनो ऐ दुनियाँवालो ]
-नरेन्द्रमुनि जी "विशारद' सुनो सुनो ए भवी जीवो तुम । महापुरुष की अमर कहानी। प्रताप मुनि है नाम गुरु का है ज्ञानी अरु निर्मानी ।।टेर।।
राजस्थान मेवाड देय मे देवगढ है सुन्दर है स्थान । सेठ मोडीराम जी रहते सकल्प जिनके थे महान् ॥ सम्वत् उनीस सौ पेसठ साल मे गुरुदेव ने जन्म लिया। मातु श्री दाखा ने शुभ प्रतापचन्द यह नाम दिया । बाल्यकाल के कुछ दिन बीते मात-पिता की दूरी हुई।
वाद कोविद नन्द गुरुवर प्रतापचन्द को भेट हुई ॥ झलक रही थी मुख पर तप-तेज-त्याग की मस्तानी ॥१॥ दर्शन करके हर्षित हुए स्नेह भरा उपदेश सुना । आत्म-बोध हुआ जागृत तव गुरु को अपना सर्वस्व चुना ।। परिवार जन से आज्ञा माँगो सयम पथ अपनाऊंगा। सत्य धर्म का शखनाद कर सोई सृष्टि जगाऊँगा । देव दुर्लभ देह पाकर निरर्थक नही गवाऊँगा।
आत्मा से परमात्मा बनने का मुख्य लक्ष्य अपनाऊँगा ।। खाने पीने ओर मौज करने मे नही खोऊँ जिन्दगानी ।।२।।
अति प्रेम से परिवारजन प्रतापचन्द को समझाया। किन्तु वैरागी वीर प्रताप ने उनकी बातो को न अपनाया ॥ रहे अडिग अपने निश्चय पर उनको ऐसा कहते है। सुख साधन है धर्माराधन क्यो अन्तराय देते है। । सच्चे मित्र का यह अभिप्राय सहधर्म मय जीवन जीने का।
ठान लिया है मैंने मन मे त्यागमय जीवन विताने का ॥ सम्यग्-ज्ञान-दर्शन अरु चरित्र है शिव सुख की खानी ॥३॥ इस तरह सबको समझाकर मन्दसौर नगरे जोग लिया। न्याति-गोति अरु अन्य से मुख अपना मोड लिया ।। अल्प समय मे सस्कृत प्राकृत हिन्दी का अध्ययन किया । ज्ञान बढा त्यो गुरु गभीर हुए शासन को चमका दिया । सेवा भावी है आप पूरे शीतल प्रकृति के साधक है। समता सागर भवी - तारक क्षमा के आराधक है। देखो । देखो | दीप रहे है 'नरेन्द्र मुनि' ये गुरु ज्ञानी ॥४॥