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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया जीने की कला ! १३७
जैसे धाई माता बालक-बालिकाओ का तन-मन से लालन-पालन, खिलाना-पिलाना आदि सर्व मेवायें करती है तथापि उनमे मोह की मात्रा नही। क्योकि उसका मन यह भली भाति जानता है कि - यद्यपि मैं उनकी सेवा शुश्रु पा अवश्य करती हू किन्तु-"ण मे अत्यि कोई, ण अहमिव वस्मवि"। मेरे पोई नही न मैं किसी की है। ये चुन्नु-मुन्नु तो राज के ताज हैं । नि सन्देह देखा जाय तो विश्व वाटिका मे वास करने की यही सरस कला है। मर्यादा के अनुसार सर्व कार्य कलाप पर भी मन मजूपा मे आसक्ति का उद्भव नही, मुख पर हर्प-अमर्प के चिन्ह नहीं और वाणी मे रोप-तोप के तुपार नहीं।
इस प्रकार जीवन व्यतीत करनेवाले मुमुक्षु अवश्यमेव ऋद्धि-मिद्धि एव समृद्धि से भर उठने हैं -
विहाय कामान्य सर्वान् पुमाश्चरति निस्पृह । निर्ममो निरहफार स शांतिमधिगच्छति ॥ तस्मादसक्त. सततं कार्य-कर्म समाचर । असक्तो ह्याचरन् सिद्धि परमाप्नोति पूरुष ॥
-गीता हाँ तो, लुखे-सूखे भावो मे सदा रमण-गमन करनेवाले मानव अवश्यमेव अपना व अन्य का उद्धार का बनते हैं। परन्तु अफसोस गजव है कि मोह-माया की जीव लुभावनी वातावरण की छायामाया मे ऐसे एकमेक बन जाते है कि उन्हें यह भान नहीं होता कि अपने लिए क्या करना है ? कही जीवन के माय अन्याय तो नहीं हो रहा है ? कही आत्मवचना तो नहो ? कही ऐसा न हो जाय कि"पुनरपि जनन पुनरपि मरण" की कला का विकास-विस्तार हो जाय । अतएव उदात्त दृष्टि से देखा जाय तो आज मानव समाज के कदम विपरीत दिशा की ओर बढ रहे हैं। विकाम नही विनाश का आलिंगन करने जा रहे हैं । सुख शाति की खोज नही, दुख की फौज जुटा रहे हैं।
. अतएव प्रत्येक बुद्धिवादी के लिए रहने की कला का प्रशिक्षण करना जरूरी है । यह शिक्षण कालजों में नहीं, अपितु महापूरपो की वाणी का सुस्वाद करने से ही प्राप्त हो सकेगा । तभी सभव है कि जीवन में आनन्द का झरना-प्रवाहित होगा।
इस दुनियां मे हूँ दुनियां का तलवगार नहीं हूँ। इस बाजार से गुजरता हूँ पर खरीददार नहीं हूँ ॥
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