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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया सच्चे मित्र की परख | १४६
यदि धन को सच्चा साथी स्वीकार कर लिया जायगा तो नि सदेह कई प्रकार के प्रश्न खडे होगे। इस विशाल भूमण्डल पर अगणित धन कुवेर हो गये है जिनका अद्यावधि न कोई पता और न पहुच आ पाई । उनकी पीढी दर पीढी न जाने कहां गायब हो गई ? मृत्यु के मुंह मे कैसे समा गये ? जव कि हीरे, पन्ने, मणि, मोती, सोना चांदी, दास, दासी, पशु-पक्षी यहां तक कि आठो सिद्धियाँ, नव निधियाँ जिनके खाट तले दामीवत् खडी रहा करती थी। कहते हैं कि-सिकन्दर के खजाने की चावियाँ चालीस ऊँटो पर लदी की लदी रहती थी । ऐतिहासिक तथ्य है कि-बादशाह शाहजहां के सम्बन्ध मे कहा जाता है कि आज के इतिहास विज्ञ उसकी सम्पत्ति को आक नही सके । फ्रांस और ईरान के राज्य कोष की सयुक्त सम्पत्ति से भी अधिक सम्पत्ति शाहजहाँ के कोप मे थी। एक दिन कोपाध्यक्ष ने वादशाह से खजाने की दीवारे चौडी करने की अपील की। क्योकि सम्पत्ति के लिए खजाना छोटा पड रहा था। शाह ने इस समस्या के लिए "तख्त ताउस" नामक एक सिंहासन वनवाया । जिसका मूल्य उस युग मे ५३ करोड रुपये का था। उसमे कीमती हीरे, जवाहरात जड़े थे। तख्ते-ताउस मे ३५ मन सोना और ७ मन जवाहरात लगा । राज्य के कुछ कारीगरो ने सात वर्षों मे तैयार किया था।
मुहम्मद गजनी १७ वार मे सोमनाथ के मदिर मे से वीस मन जवाहरात, २०० मन सोना, एक हजार मन चाँदी वह लूटेरा बनकर ले गया और गेकडे कलदारो की गिनती ही नही थी। तथापि धनपतियो की जान एक ही क्षण मे न जाने कहाँ छूमन्तर हुई, जबकि अपार ऐश्वर्य के अम्बार जिनके अगल-बगल मे पड़े थे । जिन पर उनको पूर्ण विश्वास और गर्व था कि-कालरूपी पिशाच सिर पर मण्डराने पर मेरी रक्षा और कोई नही कर सकेंगे तो यह धन तो अवश्य करेगा। लेकिन यह मिथ्या भ्राति भी बालु की इमारत की तरह ढह गई। धन सम्पत्ति मे उस त्राणशक्ति का नितान्त अभाव पाया जाता है । गई हुई जान-ज्योति को फिर से हूँढ लावे अथवा बाजार-मार्केटो मे से खरीद कर उस पार्थिव पुतले से पुन प्रतिष्ठित कर दे । परन्तु इस अद्वितीय प्रयोग मे धन सर्वथा असफलता का मुख ताकता रहा है । क्योकि कहा भी है
___"Money will not buy every thing" अर्थात्-धन द्वारा प्रत्येक वस्तु नही खरीदी जा सकती है । हाँ, धन द्वारा जड वस्तु की खरीदी का तोल-मोल अवश्य होता है, किन्तु आत्मिक गुणो का नही, आज श्रीमतो के घरानो मे सगाई एव विवाह के प्रसग पर सतानो की बिक्री नोल-मोल मांगनी का जो सिलसिला चल रहा है वह केवल उस पार्थिव देह का है, न कि देही का । यदि देही की कीमत करते तो शील-सदाचार एव सद्गुणो का माध्यम अपनाते ।
कहते हैं कि--कवि माघ का विद्वान पुत्र कवि तो बना, किन्तु साथ ही साथ गरीबी की परिताडना से तग आकर चोरी कला भी सीख गया । एकदा वह घूमता २ अर्ध-रात्रि के समय राजा भोज के महल मे जा पहुँचा । उस वक्त भोज जाग रहा था। कही मुझे देख न ले इस कारण वह भोज के पलग के नीचे जा बैठा । स्वर्णिम पलग पर लेटा हुआ सम्राट भोज अपने तुच्छ वैभव के सम्बन्ध मे गर्योक्तियाँ इस प्रकार अभिव्यक्त कर रहा था।
चेतोहरा युवतय सुहृदोऽनुकूला,
सद्वान्धवा प्रणयनम्र गिराश्च भृत्या । बल्गन्ति दति निवहास्तरलास्तुरगा,